90s का टाइम वाकई ‘एक्शन का स्कूल’ टाइम हुआ करता था, जहां स्कूल कम धोबीघाट वाली फीलिंग ज़्यादा आती थी. बच्चों का भविष्य चमकाने के लिए मास्टर साहब जमकर धुलाई करते थे. पेरेंट्स भी ऐसे थे कि जब तक बच्चा स्कूल में पेला न जाए, तब तक उनको लगता ही नहीं था कि कुछ पढ़ाया गया है.

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वैसे इसमें ग़लती न तो मास्टर साहब की थी और न ही पेरेंट्स की. वो तो हम फूल जैसे बच्चों की नामाकूल जैसी हरकतों को कई बार टाल दिया करते थे. मगर हमारी ख़ुराफ़ाती की इम्तिहां ये थी कि मास्टर के सामने ही बैठकर उनकी चिकनी टांगों की तारीफ़ में कसीदे पढ़ा करते थे.

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न..न..न.. ये बात अश्लील नहीं, मासूमियत भरी है. दरअसल, हमारे एक गुरू जी थे. छोटे से एकदम गोल-मटोल. उनकी आदत थी कि जब भी वो कुर्सी पर बैठते तो पैंट घुटने तक चढ़ाकर सामने बेंच पर रख देते. यूं ही एक दिन मेरे बगल में बैठा लौंडा गुरू जी से बोला, ‘सर आपकी टांगे बहुत गोरी हैं’. लगे हाथ हम भी बोले, ‘अबे गोरी छोड़, देख तो एक भी बाल नहीं.’

अब आप ही सोचिए, कौन मास्टर साहब भरी क्लास में अपनी सुंदर-सुनहरी टांगों पर ये मुंहपेलई बर्दाश्त करता. बस अगले ही पल हमारे बालों के झोटे और उनके हाथ रस्साकशी का खेल खेलने लगे. ख़ैर, ये तो बस हमारी मासूमियत भरी हरकतों का एक उदाहरण भर था. कांड तो हम बहुत से जूते खाने लायक किए हैं. विद्या रानी का भी हम पर ऐसा आशीर्वाद रहा कि स्कूल में कूटे जाने का हमारा कोई भी मौका कभी छूटा नहीं.

तो हमने सोचा क्यों न आज आपके साथ स्कूल में मिलने वाली उन सज़ाओं को याद किया जाए, जिन्हें कभी न कभी हर 90s के बच्चे ने भुगता है. तो चलिए श्रीगणेश करते हैं.

1. उंगली के बीच पेन दबाना

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ये वो सज़ा है, जिसे आज भी सोचकर हमारा मुंह अपने आप दर्द से टेढ़ा होने लगता है. इस विशेष सज़ा का प्रावधान होमवर्क न करने वाले बच्चों के लिए गुरू जी ने आरक्षित किया था. उंगलियों के बीच पेन फंसाकर मास्टर साहब तब तक दबाते थे, जब तक हमारी गर्दन और सिर 45 डिगरी का कोण न बना लें.

2. कलम उखाड़ना

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भइया कंटाप मारना, मुर्गा बनाना जैसी सज़ाएं तो हर लौंडा झेल लेता था, लेकिन कलम उखड़वाना हर किसी के बस की बात नहीं थी. भाई, सच बता रहें, टीचर जब कलम के बाल पकड़कर खींचता है तो शरीर ग्रैविटी को फ़ेल करता ख़ुद-ब-ख़ुद ऊपर हो लेता है.

3. कान गर्म करना

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ये सज़ा ख़ासतौर से जाड़ों के लिए मास्टर साहब सुरक्षित रखते थे. इसमें ज़्यादा कुछ नहीं, बस पोले-पोले कानों पर गुरू जी अपने गुदारे-गुदारे हाथ ऐसे रगड़ते थे, मानो कोई लस्सी निकालने के लिए मथनी मथ रहा हो. कुछ देर बाद कान से कूकर माफ़िक सीटी बजती थी और गर्मागर्म कान तैयार.

4. खोपड़ी में दिमाग़ चेक करना

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ये अलग ही लेवल की बेज़्ज़़ती भरी सज़ा थी. पूरे क्लास के आगे गुरू जी उंंगलियों की टुंडी बनाकर खोपड़ी पर टन-टन मारते थे. हर चोट के साथ बस यही बोलते थे, ‘देखी भेजा है कि भूसा भरा’… कसम से बता रहे, कई बार ऐसी फीलिंग आई कि काश भूसा होता तो इसी में आग लगाकर खोपड़ी मास्टर साहब के दे मारते.

5. पीठ सुजाना

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इस सज़ा पर तो गणित वाले टीचर का एकाधिकार था. पता नहीं घऱ से कौन गाली खाकर मास्टर साहब स्कूल आवां करे रहें कि जब देखो धनचुक्का बनाकर लौंडों की पीठी पर धर देत रहें. कभी-कभी तो ऐसा पगला जावत रहें कि किल्ली-विल्ली भी दे मारत रहें. वाकई में गणित वाला मास्टर बहुत जुल्मी रहा. 

6. गुद्दी लाल करना

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बुद्धि खोलने का टीचरों का इससे अच्छा उपाय नहीं सूझता था. जितना लचर लौंडा उतना झन्नादेदार तमाचा गुद्दी पर रसीद होता था. अच्छा इसमें भी खेल था. अगर मानो पता है गुद्दी लाल होने वाली है, तो मुंडी आगे-पीछे कर थोड़ी राहत बटोर लेते थे, लेकिन जब ये सरप्राइज़ गिफ़्ट होता था, तब तो भइया गालियां हलक में ही गरारा कर लेती थीं.

7. शक्कर की बोरी बनाना

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इस सज़ा को आप उस वक़्त के मास्टरों का प्यार भी समझ सकते हैं और बॉडी शेमिंग करना भी. काहे कि ये सिर्फ़ मोटे बच्चों के ही नसीब में थी. बच्चा अगर गोलू-मोलू हुआ तो बस उसे पीछे बेंच पर शक्कर की बोरी बनवा दो. ये अलग बात है कि इस सज़ा से उस शक्कर की बोरी में ज़िंदगी भर की कड़वाहट भर जाती थी.

8. गोविंदा का नाच नचाना

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एक मास्टर साब थे, जो क्लास में बच्चों को गोविंदा का नाच नचवाते थे. चक्कर क्या था कि क्लास की फ़र्श में चौकोर-चौकोर डिज़ाइन बनी थी. बस बच्चों को बीच में खड़ा कर क़ायदे से हौकते थे. बोल रखे थे कि चौखंटे से निकले तो बात घर पे पहुंचेगी. बस बच्चे भी बेचारे अंदर ही गोविंदा की तरह ठुमकते हुए पिटते थे.  

9. हेलीकॉप्टर बना डालना

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ये थी सबसे ताबड़तोड़ और ख़तरनाक सज़ा. मतलब एकदम ही भयंकर टाइप. जिस दिन मास्टर साब पर माता सवार होती थी, उस दिन किसी न किसी लौंडे को अम्मा याद आती थी. इसमें ऐसी पिलाई होती थी कि बच्चे को एक जगह से उठाकर टीचर पीटना शुरू करता था और पूरे क्लास में घुमा-घुमाकर पेलता था. इतनी तबाही इज़रायल, गाज़ा पट्टी पर नहीं मचाता, जितनी गुरू जी लौंडे के शरीर पर मचाते. कोहनी, घुटना, कंटाप, मतलब उस वक़्त अगर कुम्फू-कराटे भी टीचर को आते, तो वो भी इस्तेमाल हो जाते. 

तो भइया, अपन जिन सज़ाओं के भुग्तभोगी रहे हैं, वो तो हमने बता दिया. अब आप बताइए, आपके स्कूल में कोई अनोखी सज़ा मिलती थी. मुर्गा बनाने जैसा नहीं. कुछ एकदम ही अलग.