दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहर बैलगाड़ी वाले शहरों के मज़े नहीं जानते. फ़ुरसत बड़ी मस्त चीज़ है. ये सिर्फ़ हम जैसे छोटे शहरों के लोगों को ही नसीब है. मतलब हम ज़रूरी काम से अगर सुबह निकलें तो शाम तक शायद ही पहुंच पाएं. क्योंकि रास्ते में हमारे यहां राम-राम बहुत होती है. एक राम-राम क़रीब पौन घंटे, दो पान, चार बीड़ी-सिगरेट और पच्चीस बार “औउर सुनाओ भइया!!! – का बताई???” के बराबर खिंचती है. 

दुकानें ‘औउर सुनाओ’ और ‘का बताई’ के लिए सबसे मुफ़ीद जगह होती हैं. ऐसी ही एक दुकान पर सुबह-सुबह मैं भी गया हुआ था. हमारे शहर में भांग की ठंडाई बहुत बढ़िया मिलती है. पंडित जी की दुकान है, बरसों का आना-जाना है. 

दुकान पर पहुंचा ही था कि पंडित जी सामने से बोल दिए. राम-राम भइया. आज कैसे इधर? हम कहे कछु नहीं पंडित जी, बस ज़रा सोचा कि भोले का परसाद ग्रहण कर लिया जाए, तो चले आए. फिर वे बोले, औउर सुनाओ भइया!!!, हम कहे, का बताई???. 

पंडित जी से बात कुछ होती कि इत्ते में ही हमारा ध्यान बगल में खड़े एक आदमी पर गया. जल्दी में था. बार-बार पीछे जा रही बसों को देख रहा था. भइया जल्दी से एक ठंडाई बनाओ और मसाला 12 चम्मच कर देना. बता दूं, मसाला मने भांग. एक चम्मच हमारे जैसों को सड़क पर लोटाने के लिए काफ़ी है. 

ठंडाई तैयार हो ही रही थी कि उतने में ही उसका एक दोस्त आ गया. अरे कहां दद्दा? राम-राम, आज हियां. का हुआ, ठेका बंद है? 

अमा नहीं. ऐसे ही आ गए. 

अच्छा औउर सुनाओ भइया!!! 

का बताई??? 

दोनों बातों में घनघोर व्यस्त हो गए. घनघोर इसलिए कि उन्हें दुक़ान पर खड़े दुर्ज़नों की तनिक भी परवाह नहीं रही. हर वाक्य मां और बहन अलंकार से सुशोभित था. मतलब गाली तो आप महानगर में भी सुनते हैं पर जिसकी बात हम कर रहे हैं ना.. ख़ैर छोड़िए उसे 

यही छोटे शहरों का मज़ा है. आप घंटो दूसरे की बातें सुन सकते हैं. यहां आप कभी किसी के मुंह से ‘आई एम फ़ीलिंग डिप्रेस्ड’ नहीं सुनेंगे. काहे कि इत्ती फ़ुरसत के बीच आदमी को डिप्रेस्ड होने का वक़्त ही नहीं मिलता. 

अच्छा फ़ुरसत भी दो प्रकार की होती है. एक होती है व्यक्तिगत और दूसरी सामूहिक. मने जब फ़ुरसत किसी एक की हरामखोरी से पैदा होती है, तो व्यक्तिगत कहलाती है. और जब ये एक पूरे समूह की चक्कलसबाजी को दर्शाए तो ये सामूहिकता के दायरे में आती है. आप अंत तक दोनों प्रकार की फ़ुरसतगिरी से वाकिफ़ को जाएंगे. और नहीं समझे तो भी ज़्यादा लोड मत लीजिएगा. बड़े शहर के नुक़सान समझ सह जाइएगा. 

देखिए मैं बात क्या कर रहा था और अब क्या करने लगा. बात उन दोनों की चल रही थी, जिन्हें मैं ध्यान से सुन रहा था. 

ख़ैर, मुंह में गुटखे से भरे लाल शरबत को थोड़ा किनारे लगाते हुए भाईसाहब बोले. अमा पता है आपको पिंटू जेल से छूटकर आ गया है. हम लोगों ने आज बैठक रखी है. कौन पिंटू बे? अमा अपना पिंटू यार. जो गंजेड़ी नाले किनारे सट्टा लगवाता है. अरे याद नहीं, तुम साले जब जेल गए थे उसके एक महीने बाद ही वो बाइक चोरी में धरा गया था… तुमको बताए भी थे… 

अच्छा… अच्छा… पिंटू! जो कुएं के पास जुआ खेलते हुए मनोज पाइप वाले का खोपड़ा खोलिस रहे… 

हां… ऊही… तो आज आ जाना बे… मस्त बकरा बनाएंगे, दारू-वारु चलेगी… 

आज क्यों यार परसो रखते…. आज ससुराल जाई का है… यही लिये तो परसाद ग्रहण कर रहे. सराब महकत है. बीवी सूंघ ले तो बिदक जात है. अच्छा खाली बिदक जात हैं या मुंह कूच के धर देत हैं. “हीहीहीही”

चलो कोई नहीं, कल का कर लेते हैं. बढ़िया महफ़िल सजेगी. अंग्रेजी सराब रहेगी और साथ में चूल्हे पर बकरा. सटासट चापेंगे. 

अमा बौड़म ही हो एकदम. कल तो कतई नहीं. 

क्यों बे?… 

कल मंगलवार है… 

अच्छा… अबे तोहका ससुराल जाई का रही न? हां बे… चलो अब सीद्धा रात मा खाने पर ही पहुंच जाब. 

खैर… औउर बताओ भइया!!! का बताई???