सदियों से यह समाज ग़ैर बराबरी की ज़मीन पर खड़ा है. हम अक्सर महिला-पुरूष के कंधे से कंधे मिला कर चलने की बातें करते हैं, लेकिन समाज के दोनों कंधें कभी बराबर नहीं रहें. आज अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस है. अगर आज भी इस ग़ैर बराबरी की बात नहीं की जाए, तो कभी सच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे.
बड़ी-बड़ी बातों को छोड़िए, पुरष अपने घर के भीतर के दहलीज के भीतर ही भेदभाव का शिकार होता है. इसकी शुरुआत बचपन से हो जाती है. जहां सूरज ढलते ही बहनों को घर में सुरक्षित पहुंच जाने या कई मामलों में सुरक्षा कारणों से बाहर ही न जाने देश का आदेश होता था, लड़कों की चिंता छोड़ उसे भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है. मां-बाप के इस अनदेखी की वजह से वो झूठ-सच बोल कर दोस्त के घर रुक जाता है, ग़लत संगत में फंसता है, बुरी आदतें सीखता है और फिर आगे चल कर हमारी संस्कृति भ्रष्ट करता है.
घर की महिलाएं नज़रों की सामने होती हैं, तो उनके भीतर ठूंस-ठूंस कर ‘घर की इज्जत’ संभालने की ज़िम्मेदारी भरी जाती है. हम कहीं नाक कटा दे, कोई टोकने वाला नहीं, क्या आपको ये बेग़ानापन कचोटता नहीं है?
कई स्तर पर हमारे हाथ बांध दिए जाते हैं, हम कई कलाओं से अनजान रह जाते हैं. खाना बनाना, बरतन धोना, कपड़े धोना, सफ़ाई, सजावट और न जाने कितने ही प्रतिभाएं सिर्फ़ महिलाओं को दी जाती हैं. इस वजह से हम अपनी पूरी ज़िंदगी महिलाओं पर आश्रित रहते हैं, यहां तक कि हम घर में ख़ुद से ख़ुद को खाना परोसने में भी सक्षम नहीं होते, उसके लिए भी मम्मी या बहन को आवाज़ लगानी पड़ती है. ये हमारी मानसिक ग़ुलामी है.
महिलाएं इतने से नहीं रुकतीं, जहां एक तरफ़ पुरूष सारी ज़िंदगी एक ही घर एक ही परिवार में बिता देता है. महिलाएं शादी के बाद नए घर, नए परिवार, नई जगह पर चली जाती हैं. एक ही ज़िंदगी में दो- दो परिवार में रहने के फ़ायदे और हमारी कहानी एक ही जगह शुरू हो कर वहीं ख़त्म हो जाती है.
सिर्फ़ एक पुरुष अपने दिल की भड़ास पन्नों पर उतार दे तो जीवनभर मं कई ग्रंथ तैयार हो जाएंगे. लेकिन महिलाएं इतना बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी. फ़िलहाल तो महिलाएं पुरुषों को मामूली अधिकार सौंप दे तो समाज में बड़ा परिवर्तन आ जाए. हालांकि पूरी ग़लती उनकी भी नहीं, इस व्यवस्था के पुरुषों की ख़ामोशी महिलाओं के लिए रज़ामंदी का काम करती है. वक़्त है इस इस सन्नाटे के पीछे दफ़न शोर से दुनिया हिलाने की, मैं आवाज़ देता हूं, आप भी चिल्लाएं!