चुनाव से पहले जो लोग इस देश के लिए युवा शक्ति हुआ करते थे, वो अब गले की हड्डी बन चुके हैं. जिसे हम श्रम शक्ति समझते थे, जिनसे विश्व गुरु बनने की उम्मीदें लगाए बैठे थे, वो युवा एक नंबर के निकम्मे, जाहिल और कामचोर हैं. इनकी वजह से देश का बंटाधार हुआ जा रहा है. ये मेरे मन की बातें नहीं हैं, ऐसा सरकार में बैठे मंत्रियों का कहना है. पहले वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने मिलेनियल्स को ऑटो सेक्टर में आई मंदी की ज़िम्मेदार बताया, उसके बाद केंद्रीय श्रम और रोजगार मामलों के राज्य मंत्री संतोष गंगवार ने कहा कि उत्तर भारत के युवाओं में टैलेंट ही नहीं है, नौकरियां बहुत हैं.
निर्मला सीतारमण JNU से पढ़ी हैं. उन्होंने अगर कहा है कि मंदी के लिए मिलेनियल्स ज़िम्मेदार हैं तो हैं, बहस की गुंजाइश नहीं है. मंत्री जी ने कहा दिया कि उत्तर भारत के युवाओं में टैलैंट नहीं है तो नहीं, इस बात को साबित करने की ज़रूरत भी नहीं, फिर भी आपके मन की संतुष्टि के लिए कर रहा हूं.
अगर उत्तर भारत के युवाओं में टैलेंट और बुद्धि होती तो सबसे पहले संतोष गंगवार जैसे लोग हमारे नेता नहीं बनते. उत्तर भारतीयों के भीतर नेताओं को पहचानने का टैलेंट नहीं है. हम अपने नेता जाति-धर्म-बाहुबल के आधार पर चुनते हैं. उनके विज़न से हमारा कोई लेना देना नहीं होता. बस इतना हो जाए कि नेता जी के छर्रे को फ़ोन कर दें तो वो ट्रैफ़िक हवालदार से हमें ‘नेता जी का आदमी’ संबोधित कर बाइक छुड़वा दे.
उत्तर भारत के युवाओं को राजनैतिक बहस की जुगाली करने से फ़ुर्सत मिलेगी तभी तो टैलैंट बटोरने का काम करेंगे. कुछ बद्धिमान लोग कहते हैं कि उत्तर भारत में बढ़िया स्कूल और विश्वविद्यालय नहीं है, Skills कहां सीखें? मैं उनको बताना चाहूंग कि ये सब बहाने हैं. सीखना है तो बुजुर्गों के सानिध्य में रहो, उनको अनुभवों से सीखो. ठोकर खा कर सीखो, अपनी ग़लतियों से सीखों और जो कमी पड़ेगी ज़िंदगी ख़ुद सिखाएगी.
नौकरियां सरकारी दफ़्तर में रखी-रखी बसा रही हैं, योग्य उम्मीदवार न मिलने पर उन्हें भाई-भतीजों में बांटना पड़ जा रहा है. उत्तर भारतीय युवाओं में टैलेंट की इस कदर कमी है कि वो पकौड़े का ठेला तक नहीं लगा पा रहे. मुद्रा लोन की मदद से पैसे लो, उज्ज्वला योजना से LPG कनेक्शन लो फिर तलो पकौड़े. अब उत्तर भारत के लोग ढंग की हरी चटनी भी नहीं बना सकते तो उसमें सरकार क्या करे!
संतोष गंगवार जी जिस सरकार में मंत्री हैं, उसके मुखिया भी उत्तर भारत से ही चुन कर आते हैं. उसके पहले भी उत्तर भारत ने देश को 9-10 प्रधानमंत्री दिए हैं. ये कोई गर्व करने की बात नहीं है. उत्तर भारतीय के हिस्से में राजनीति ही आई है. यहां के नेताओं को अपनी रैलियों में युवा भीड़ चाहिए. अगर ये लोग कॉलेज-स्कूल जाने लगें तो फिर पार्टी का झंडा कौन उठाएगा, इनके लिए नारे कौन लगाएगा!