सर्दी थोड़ी बढ़ चुकी है, मौसम रुमानी है, त्योहार का रंग अभी उतरा नहीं है. लोग हज़ारों ख़र्च करके पहाड़ों पर ऐसे मौसम का मज़ा लेने जाते हैं, दिल्ली वालों ने एक रात में पटाखें फोड़ कर माहौल तैयार कर दिया. क्या हुआ जो ऐसा ज़हरीली गैस की वजह से है, दिख तो अच्छा रहा है. इस दौर में अच्छा दिखना अच्छा होने से ज़्यादा ज़रूरी है. सरकार जल्दी से कुछ बढ़िया तस्वीरें निकलवा लें क़ुतुब मीनार, अक्षरधाम, राष्ट्रपति भवन आदि की… पर्यटन के विज्ञापन में काम दे जाएंगे. 

Wall Street Journal

जब समझाया जाता है कि पटाखे मत फोड़िए दिल्ली पहले से ही एक गैस चेंबर है, आप और प्रेशर मत बनाए, एक दिन फट जाएगा. तब लोगों के लगता है कि ऐसा उनके साथ थोड़ी होगा, उनके फेफड़ों को कुछ नहीं होना और जब ये फ़ील आ जाती है कि वो सेफ़ हैं तो बाकी से मतलब ही किसे है, पटाखें क्यों न फोड़ें! सांस की बिमारियां तो एलियन्स को होती हैं. 

मुख्यमंत्री ने भी कह दिया कि दिल्ली वाले बड़े अच्छे हैं, उन्होंने दिवाली में पटाखें नहीं फोड़े. ऐसे कौन झूठ बोलता है यार! ठीक है केजरीवाल जी को बताना था कि कनॉट प्लेस में उनका इवेंट सफ़ल रहा लोगों ने तारीफ़ की, इसके लिए आप कुछ भी बोल जाएंगे? पटाखे भी कोई छुपा सकने वाली चीज़ है भला! सबने फोड़ा, सबने सुना… जो न सुन सकें वो अभी खिड़की से बाहर झांक लें स्मॉग के रूप में धुआं अब भी बीते रात की गवाही दे रहा है.

पता नहीं भारत के लोग धर्म के नाम पर इतने भावूक क्यों हो जाते हैं. ज़्यादातर इस ज़िद में पटाखा फोड़ते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कोई दूसरा उनके धर्म में दख़ल दे रहा है. फिर हमारा धर्म बनाम उनका धर्म वाली बहस चल पड़ती है. अपना धर्म ध्वज सबसे ऊंचा लहराने के जुनून में भविष्य के नसलों की भी सांसे छीनने में लग जाते हैं, जिन्हें आगे चल कर इस झंडे को उठाना है.