15 अगस्त आने वाली है. वो तारीख जो सन् 1947 के बाद भारत के इतिहास में अमर हो गई. इस पूरे महीने चारों तरफ़ देशभक्ति का माहौल छाया रहता है. इस पल को जीवंत बनाने के लिए हमारे देश के हजारों नौजवानों ने अपनी जान कुर्बान कर डाली थी. इन्हीं बहादुर सपूतों में से एक था वीर खुदीराम बोस.

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खुदीराम देश की आज़ादी की लड़ाई में शहीद होने वाला पहला और सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी था. खुदीराम महज़ 18 साल की उम्र में ही देश के लिए हंसते-हंसते सूली पर चढ़ गये थे.

शुरुआती जीवन-

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खुदीराम का जन्म बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था. उस दिन इतिहास के पन्ने 3 दिसम्बर 1889 की तारीख बता रहे थे. अपने बचपन में खुदीराम ने अपने माता-पिता को खो दिया. इसके बाद बालक खुदीराम को पालने की ज़िम्मेदारी बड़ी बहन ने उठाई. अपनी स्कूली शिक्षा के समय से ही वह राजनैतिक गतिविधियों में रुचि लेने लगे. 9वीं कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. 1905 में हुए बंगाल विभाजन के बाद वह पूरी तरह से स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े.

क्रांतिकारी जीवन-

स्कूल छोड़ने के बाद वह रेवल्यूशन पार्टी का सदस्य बने. अपनी शुरुआती भागीदारी में वो वन्देमातरम के पर्चे बांटा करते थे. 6 दिसम्बर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गये बम विस्फोट की घटना में भी बोस का हाथ था.

उसी समय किंग्सफोर्ड नाम का एक मजिस्ट्रेट हुआ करता था, वह क्रांतिकारियों को लेकर अपने कठोर रवैये की वजह से कुख्यात था. इस वजह से क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या करने का निश्चय किया. उस समय उसकी तैनाती बिहार के मुज्जफरपुर थी. युगान्तर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेन्द्र कुमार घोष ने किंग्सफोर्ड को मुज्जफरपुर में ही मारने का निर्णय लिया. इस काम के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद चाकी को चुना गया.

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दोनों क्रांतिकारी मुज्जफरपुर पहुंच कर कई दिनों तक एक धर्मशाला में रुक कर हमले के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगे. 30 अप्रैल 1908 की शाम को किंग्सफोर्ड अपनी पत्नी के साथ स्थानीय क्लब में पहुंचे. उसी समय मिसेज कैनेडी और उनकी बेटी भी अपनी बग्गी में बैठकर क्लब जा रहे थे. उनकी बग्गी का रंग भी बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्गी की तरह ही था. खुदीराम और प्रफुल्ल ने किंग्सफोर्ड की बग्गी समझकर उस पर बम फेंका, जिससे उसमें सवार मां और बेटी दोनों की मौत हो गई.

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दोनों करीब 25 किलोमीटर भागने के बाद पुलिस के हाथ आ ही गये. पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर प्रफुल्ल चाकी ने ख़ुद को गोली मार ली. खुदीराम पकड़े गये और उन पर हत्या का मुकदमा चला. 13 जून को उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. 11 अगस्त 1908 को उन्हें तड़के सुबह 6 बजे फांसी पर चढ़ा दिया गया.

शहादत के बाद उन पर बंगाल में कविताएं और वीर रस के गीत लिखे गये. जिन्हें आज़ादी के दीवाने बड़े फक्र से गाते थे. आज जिस उम्र को हम बचपने की उम्र मानकर व्यर्थ के कामों में गंवा देते हैं. उस अल्हड़ उम्र में भारत मां के इस सच्चे सपूत द्वारा दिए गये बलिदान को युगों-युगों तक याद रखा जायेगा.