बचपन की यादों के पिटारे में मौजूद कई सुनहरी यादों में से एक है पापा-मम्मी के साथ मेला घूमने जाना. वहां झूले झूलना, हवा मिठाई खाना और ऊल-जलूल चीज़ों के लिए ज़िद करना.
मेले से हर भारतीय की कोई न कोई याद ज़रूर जुड़ी होती है. मेरे लिए मेले यानि की खाना और झूले. झूले पर बैठकर बचपन में ऐसा लगता था मानो दुनिया मेरे ही कदमों पर है, क्या तो बेवकूफ़ी थी.
मेले का एक और आकर्षण है जो बच्चे, बड़े, बूढ़ों, स्त्री, पुरुष सबको अपनी ओर खींचता. चाट-गोलगप्पे नहीं, न ही कोई और खेल. वो चीज़ है ‘मौत का खेल’. सही समझा आपने, मैं ‘मौत के कुंए’ की ही बात कर रही हूं.
याद आया वो बाइक या कार सवार जो कुएं के अंदर मौत को हर चक्कर में मात देता है. बचपन में लंबाई कम होने का कारण, कुंए के छोर तक तो कभी नहीं पहुंच पाए. पर रोमांच में लोगों का शोर याद है.
बड़े होने पर समझ आया कि हमारे मनोरंजन के लिए एक व्यक्ति बाइक पर बैठा अपनी हाथ जान पर लेकर स्टंट करता है. Mens XP ने मौत के कुंए में खेल दिखाने वाले महेश वर्मा के कुंए के बाहर की ज़िन्दगी में झांकने की ज़हमत की है.
लेख के कुछ अंश-
महेश ने ताउम्र इस कुंए में प्रदर्शन किया है. कुंए में जाने से पहले वे कुएं की जांच करते हैं, यही तो एक तरीका है जिससे वो मौत और ज़िन्दगी में फ़र्क कर सकते हैं. मौत का कुंआ यानि की ग़लती और ज़िन्दगी का साथ छूटा.
हरियाणा के सोनीपत के महेश ज़िन्दगी और मौत के बीच आंख-मिचौनी के इस खेल के बारे में कहते हैं,
प्रदर्शन के दौरान गिरना यानि की एक तरफ़ कुंआ और दूसरी तरफ़ खाई. आप जहां भी गिरे, मौत तो तय है.
इस खेल में अपनी शुरुआत के बारे में महेश ने बताया,
मुझे बाइक चलाना हमेशा से पसंद था. जब मैंने शुरू किया तो ऐसा लगता था मानो में सातवें आसमान पर हूं. मैंने अपने पापा को बाइक चलाते देखा था और मुझे भी वहीं से प्रेरणा मिली. मेरे पापा ही मेरे हीरो हैं. पहले मैं सिर्फ़ बाइक चलाता था क्योंकि कुंआ बनाने के पैसे नहीं थे.
बाइक चलाने का महेश का जुनून था और मौत के कुंए में बाइक चलाना उनका सपना. अपने सपने को पूरा करने के लिए महेश को अपने पुरखों का घर भी बेचना पड़ा. पिता के घर को बेचकर महेश ने गाज़ियाबाद में एक बड़ा मौत का कुंआ बनाया और अपनी बाइकिंग स्किल्स की बदौलत क़ामयाबी हासिल की.
मौत के कुंए में बाइक चलाना कोई बच्चों का खेल नहीं है और महेश की पत्नी भी यही चाहतीं हैं कि इससे पहले की ये खेल महेश की जान ले ले वो ये खेल छोड़ दें.
महेश के पिता और दादा भी ये खेल दिखाते थे. लेकिन महेश के बाद की पीढ़ी में किसी ने भी इस खेल को अपना प्रोफ़ेशन नहीं बनाया है. महेश की पत्नी ये भी नहीं चाहती कि उनके बच्चों में से कोई भी इस खेल को ही अपने जीवन का मकसद बनाये.
‘मौत का कुंआ’, ‘रस्सी पर चलना’, ‘ख़ुद पर कोड़े बरसाना’ भारत में ऐसे कई खेल चलते हैं जिनके सहारे लोग पैसे कमाते हैं. इन खेलों में न तो कोई मेडल है और न ही कोई राष्ट्रीय पहचान मिलती है. दूसरे देशों में लोग ऊंचाई पर रस्सी टांग कर, उस पर चलकर रिकॉर्ड बना लेते हैं और हमारे देश में 2-5 रुपये के लिए लोग अपनी जान पर खेलते हैं.
धीरे-धीरे देश से मेलों की संस्कृति ख़त्म होती जा रही है. मेले अब कुछ निहित स्थानों पर लगते हैं या फिर सिर्फ़ बस्तियों तक ही सीमित रह गये हैं. इस देश में महेश जैसे कई और लोग पर्दे के पीछे रहकर अपनी जान पर खेलकर लोगों का मनोरंजन करते हैं.
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