‘वो’ खिड़की पर बड़ी बेसब्री से ‘उसका’ इंतज़ार करती है. ‘वो’ नहीं आता. ‘वो’ ढलती धूप-सा चेहरा लिए मायूसी से वापस चली जाती है. ‘वो’ कल सुबह फिर आती है. ‘वो’ फिर उसी बेसब्री से ‘उसका’ इंतज़ार करती है, ‘वो’… नहीं आता.
ख़ाली हाथ शाम आई है, खाली हाथ जाएगी… आज भी न आया कोई, ख़ाली लौट जाएगी.
ये अधूरी कहानी, कश्मीर की उस औरत की सच्चाई है जिसका ‘शौहर’ चंद रोज़ पहले घर से ले जाया गया था, लेकिन आज तक वापस नहीं आया. ये कहानी है कश्मीर की हर उस ‘आधी-विधवा’/ ‘हाफ़ विडो’ की, जिसकी आंखों का दर्द इंतज़ार में सूख कर सुर्ख़ हो गया है.
मीमां बेग़म के शौहर 2007 में घर से निकले थे, और आज तक वापस नहीं आए. उनके पति गुलज़ार अहमद ज़रगर वन-विभाग में काम करते थे. उससे पहले उन्होंने जम्मू कश्मीर पुलिस में अफ़सर के तौर पर भी काम किया, लेकिन चार साल बाद ये नौकरी छोड़ दी. अपने शौहर के लापता होने के बाद से मीमां ने आर्मी कैम्प्स से लेकर पाक़िस्तान तक में उनको ढूंढने की पुरजोर क़ोशिश की, लेकिन उसे हर बार मायूस लौटना पड़ा. इस वक़्त मीमां अपने चार बच्चों के साथ एक कमरे के घर में किसी तरह गुजर-बसर कर रही हैं.
अपनी ज़िन्दगी के दुःख को चेहरे पर समेटे, मीमां की दिक्कतें यहीं ख़त्म नहीं होती ससुराल वालों के लिए उनका होना न होना, बराबर है और न ही उनकी तरफ़ से किसी तरह की कोई मदद मिलती है. सोचिए क्या बीतती होगी उस औरत पर जिसे ये नहीं पता कि वो अपने को सुहागिन माने या इस सच को अपना कर विधवा बन जाए? मीमां की इस अधूरी कहानी में कहीं दर्द है, तो कहीं बेबसी.
कश्मीर में मीमा जैसी हज़ारों ‘आधी विधवाएं’ हैं जिन्हें जायदाद में हिस्सा नहीं मिला है. पिछले 27 साल में भारतीय सुरक्षा बलों पर इनके पति को ग़ायब करने का आरोप लगता रहा है. कुछ ऐसे आम नागरिक हैं जिनके बारे में पता नहीं चल पाया है कि वो कैसे ग़ायब हुए हैं.
कश्मीर में ऐसी महिलाओं के लिये काम करने वाले संगठन ‘एसोसिएशन ऑफ़ डिसअपियर्ड पर्सन्स’ की मुखिया परवीन अहनगर कहती हैं, “कश्मीर में आधी विधवाओं की तादात हज़ारों में है. पांच साल पहले आए फ़तवे, जिसमें ‘आधी-विधवाओं’ को पति के चार साल तक वापस न आने पर, निक़ाह करने की इजाज़त दी है, ने कम से कम इन्हें एक नई ज़िन्दगी शुरू करने की आशा दी है. लेकिन इस पर अभी भी कोई बात साफ़ नहीं हुई कि उन्हें जायदात में हिस्सा मिलेगा या नहीं.
अपने पति के इंतज़ार में आधी ज़िन्दगी निकाल देने वाली इन ‘आधी-विधवाओं’ की बाक़ी की ज़िन्दगी अपने बच्चों के भविष्य को ठीक करने में निकल जाएगी. इनमें से कई उनके लिए दूसरी शादी कर लेंगी और कुछ ऐसी ही ‘आधी-विधवा’ की ज़िन्दगी को अपना लेंगीं.
इनके लिए बीता हुआ हर दिन, ख़त्म हुई हर रात एक आशा लेके आती है, कि शायद किसी दिन दरवाज़े पर अचानक एक दस्तक होगी और ‘वो’ कहेगा, ‘मैं आ गया’.