कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि उनकी तपिश इतिहास के पन्नों के भीतर भी महसूस की जा सकती है. ऐसी ही एक घटना है सरागढ़ी की जंग. इस जंग ने कुर्बानी और वीरता की एक नई इबारत लिखी थी. देशभक्ति, अपरिमित शौर्य और उत्साह से लबरेज़ 21 सिखों ने अपनी बहादुरी की ऐसी दास्तान लिखी कि ‘यूनेस्को’ ने उस जंग को विश्व की श्रेष्ठ आठ लड़ाइयों में शुमार किया.

चाहे जंग हो या सेवा, सिखों ने दुनिया को दिखाया है कि वास्तव में सच्ची जंग कैसे लड़ी जाती है और सच्ची सेवा कैसे की जाती है? इनके लिए अपने कर्तव्य से पहले कुछ भी नहीं आता. ये विजय या मौत के अलावा अपने पास कोई तीसरा विकल्प रखते ही नहीं. देश के लिए सब कुछ कैसे कुर्बान किया जा सकता है और किस हद तक दुश्मनों को गर्त में मिलाया जा सकता है, इसकी मिसाल है ‘सरागढ़ी की जंग.’ आइए जानते हैं कि आखिर क्या हुआ था उस जंग में कि मात्र 21 सिख हज़ारों दुश्मनों पर भारी पड़ गए और असम्भव को संभव कर दिखाया. इस जंग को जानना इसलिए ज़रूरी है, जिससे हमें ‘राष्ट्र रक्षक’ सिखों के पराक्रम पर गर्व महसूस हो सके.

– ‘सरागढ़ी’ पश्चिमोत्तर सीमांत (अब पाकिस्तान) में स्थित हिंदुकुश पर्वतमाला की समाना श्रृंखला पर स्थित एक छोटा गांव है. लगभग 119 साल पहले हुए युद्ध में सिख सैनिकों के शौर्य और साहस ने इस गांव को दुनिया के नक़्शे में एक महत्वपूर्ण स्थान के रूप में चिन्हित कर दिया.

– ब्रिटिश शासनकाल में ‘वीरता’ का पर्याय मानी जाने वाली 36 सिख रेजीमेंट, ’सरगढ़ी’ चौकी पर तैनात थी. यह चौकी रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण गुलिस्तान और लाकहार्ट के किले के बीच में स्थित थी.

– यह चौकी इन दोनों किलों के बीच एक कम्यूनिकेशन नेटवर्क का काम करती थी. सितम्बर 1897 में अफगानों की सेना ने ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध अगस्त के अंतिम हफ्ते से 11 सितंबर के बीच असंगठित रूप से किले पर दर्जनों हमले किए, लेकिन अंग्रेजों की तरफ से देश के लिए लड़ रहे सिख वीरों ने उनके सारे आक्रमण विफल कर दिए.

12 सितम्बर 1897 की वो सुबह…

उस सुबह करीब 12 से 15 हजार दुश्मनों ने लॉकहार्ट के किले को चारों तरफ से घेर लिया. हमले की शुरुआत होते ही सिग्नल इंचार्ज ‘गुरुमुख सिंह’ ने लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉफ्टन को हेलोग्राफ पर यथास्थिति का ब्योरा दिया, परन्तु किले तक तुरंत सहायता पहुंचाना काफी मुश्किल था. मदद की उम्मीद लगभग टूट चुकी थी, लेकिन सिख वीरों ने आत्मसमर्पण करना स्वीकार नहीं किया. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए लांसनायक लाभ सिंह और भगवान सिंह ने अपनी रायफल उठा ली और अकेले ही जंग लड़ने का फैसला किया. शत्रुओं को गोली से भूनते हुए आगे बढ़ रहे भगवान सिंह शहीद हो गए.

-उधर सिखों के हौसले से, दुश्मनों के कैम्प में हडकंप मच गया था. उन्हें ऐसा लगा मानो कोई बड़ी सेना अभी भी किले के अन्दर है. उन्होंने किले पर कब्जा करने के लिए दीवार तोड़ने की दो असफल कोशिशें कीं. हवलदार इशर सिंह ने नेतृत्व संभालते हुए अपनी टोली के साथ “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” का नारा लगाया और दुश्मनों पर झपट पड़े. हाथापाई में 20 से अधिक दुश्मनों को मार गिराया.

-गुरमुख सिंह ने अंग्रेज अधिकारी से कहा- ‘हम भले ही संख्या में कम हो रहे हैं, पर अब हमारे हाथों में 2-2 बंदूकें हो गई हैं. हम आख़िरी सांस तक लड़ेंगे’, इतना कह कर वह भी जंग में कूद पड़े. लड़ते-लड़ते सुबह से रात हो गई और आखिरकार सभी 21 रणबांकुरे शहीद हो गए.

-इस जंग में उन 21 वीरों ने करीब 500 से 600 लोगों का शिकार किया. दुश्मन बुरी तरह थक गए और तय रणनीति से भटक गए, जिसके कारण वे ब्रिटिश आर्मी से अगले दो दिन में ही हार गए. पर यह सब उन 21 सिख योद्धाओं के बलिदान के परिणामस्वरूप ही हो सका.

-इस ‘महान’ और असंभव लगने वाली जंग की चर्चा समूचे विश्व में हुई. लन्दन स्थित ‘हाउस ऑफ़ कॉमंस’ ने एक स्वर से इन सिपाहियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की. यूनेस्को ने इसे विश्व की 8 सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ जंगों में शामिल किया है.

-मरणोपरांत 36 रेजीमेन्ट के सभी 21 शहीद जवानों को परमवीर चक्र के समतुल्य विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया. ब्रिटेन में आज भी ‘सरागढ़ी की जंग’ को शान से याद किया जाता है.

-भारतीय सेना की आधुनिक सिख रेजीमेंट 12 सितम्बर को हर साल ‘सरागढ़ी दिवस’ मनाती है. यह दिन उत्सव का होता है, जिसमें उन महान वीरों के पराक्रम और बलिदान के सम्मान में जश्न मनाया जाता है.

– भारत और ब्रिटेन की सेना ने 2010 में ‘सरागढ़ी की जंग’ के स्मरण में एक “सरागढ़ी चैलेन्ज कप” नाम की ‘पोलो’ स्पर्धा शुरू की. इसके बाद से इसे हर साल आयोजित किया जाता है.

सरागढ़ी की जंग में यद्यपि सिख योद्धा ब्रिटिश सेना की तरफ से लड़ रहे थे, लेकिन उनके भीतर सिर्फ अपने राष्ट्र की रक्षा का जूनून था. कभी पाकिस्तान कभी मुग़ल तो कभी अफगानी, भारतवर्ष की गरिमा और संप्रभुता पर प्रहार करने वाले हर दुश्मन को सिखों ने मिट्टी में मिला दिया.

लोंगेवाला, सरागढ़ी, कारगिल और न जाने कितने ऐसे युद्ध के मैदान हैं, जहां की मिटटी सिख सैनिकों की वीरता और बलिदान के गीत गाती है. अपने शौर्य और बलिदान से ही सिखों ने हमेशा भारतवर्ष की अखंडता की रक्षा की. देश के ख़ातिर मर-मिटने के लिए जन्म लेने वाले वीरों, देश तुम्हारा कृतज्ञ है, तुम्हें शत-शत नमन.