उत्तराखंड के रहने वाले पंडित नैन सिंह रावत वही शख़्स थे जिन्हें तिब्बत को दुनिया के नक़्शे पर लाने के लिए जाना जाता है. ख़ास बात ये रही कि उन्होंने ये नक़्शा बिना किसी आधुनिक उपकरण के तैयार किया था. पंडित नैन सिंह रावत 19वीं शताब्दी के उन सर्वेक्षकों में से थे जिन्होंने हिमालयी क्षेत्रों की खोज की थी.   

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कौन थे पंडित नैन सिंह? 

पंडित नैन सिंह रावत का जन्म 21 अक्तूबर 1830 को पिथौरागढ़ ज़िले के मुनस्यारी तहसील के मिलम गांव में हुआ था. नैन सिंह कुमायूं घाटी के रहने वाले थे. पंडित जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की. आर्थिक तंगी के चलते वो कम उम्र में ही पिता के साथ भारत-तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये. इस दौरान उन्हें पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने का मौका मिला. सन 1858 से 1863 तक वो अपने गांव में शिक्षक भी रहे. 

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इस दौरान उन्होंने तिब्बती भाषा भी ले थी जिसकी वजह से उन्हें तिब्बत के बारे में बहुत कुछ जानने और समझने का मौका मिला. हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फ़ारसी व अंग्रेज़ी भाषा का भी अच्छा ख़ासा ज्ञान हो गया था. इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी. पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी ज़िंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में ही बिताया. 

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‘सर्वे ऑफ़ इंडिया’ में निदेशक अरुण कुमार बताते हैं कि 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ भारत का नक़्शा तैयार कर रहे थे. इस दौरान वो लगभग पूरे भारत का नक़्शा तैयार कर चुके थे. अब वो आगे बढने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन उनके आगे बढ़ने में सबसे बड़ा रोड़ा था तिब्बत. उस दौर में तिब्बत के बारे में न केवल बेहद कम जानकारियां थीं बल्कि विदेशियों का वहां जाना भी सख़्त मना था. ऐसे में अंग्रेज़ कशमकश में थे कि तिब्बत का नक़्शा तैयार करें तो कैसे? 

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इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने कई कोशिशें कीं लेकिन उन्हें हर बार नाकामी ही हाथ लगी. इसके बाद सर्वेक्षक जनरल माउंटगुमरी ने फैसला लिया कि अंग्रेज़ों के बजाए उन भारतीयों को भेजा जाए जो तिब्बत के साथ व्यापार करने वहां जाते रहते हैं. आख़िरकार 1863 में जनरल माउंटगुमरी दो ऐसे लोग मिले जो उनकी इस खोज इसलिए उपयुक्त थे. वो थे 33 साल के पंडित नैन सिंह रावत और उनके चचेरे भाई मानी सिंह रावत. 

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अब सर्वेक्षक जनरल माउंटगुमरी अपने दो भारतीय सहयोगियों के साथ तिब्बत यात्रा के लिए तैयार थे. लेकिन इस दौरान उनके लिए सबसे बडी चुनौती ये थी कि आख़िर दिशा और दूरी नापने के यंत्र तिब्बत तक कैसे ले जाए जाएं क्योंकि ये आकार में काफी बड़े थे और पकड़े जाने पर तिब्बत के लोग इसे जासूसी मान कर उन्हें मौत की सजा भी दे सकते थे. इसके बाद नैन सिंह रावत और मानी सिंह रावत को ट्रेनिंग के लिए देहारदून लाया गया. देहरादून में उनके साथ महीनों तक अभ्यास करवाया गया. इस दौरान ये तय किया गया कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास लेकर जाएंगे और तापमान नापने के लिए थर्मामीटर. 

आख़िरकार सन 1863 में दोनों भाई अलग-अलग तिब्बत यात्रा के लिए निकल पड़े. नैन सिंह काठमांडू के रास्ते तो मानी सिंह कश्मीर के रास्ते तिब्बत के लिए निकले थे. कुछ ही दिन बाद मानी सिंह अपने पहले ही प्रयास में नाकाम होकर कश्मीर से वापस लौट आए, लेकिन नैन सिंह ने अपनी यात्रा जारी रखी. 

इस दौरान नैन सिंह रावत ने अपने हाथ में एक प्रार्थना चक्र रख लिया था जिसे तिब्बती भिक्षुक साथ रखते थे जबकि दूरी नापने के लिए उन्होंने एक नायाब तरीका अपनाया. इस दौरान नैन सिंह ने अपने पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांध ली ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ें. साथ ही उन्होंने हिंदुओं की 108 कंठी मला के बजाय 100 मनकों वाली माला थाम ली, ताकि गिनती आसान हो सके. 

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इस दौरान नैन सिंह रावत तिब्बत पहुंचे और अपनी पहचान छुपा कर बौद्ध भिक्षु के रूप में रहने लगे. वो दिन के समय शहर में टहलते और रात में किसी ऊंचे स्थान से तारों की गणना करते. इस दौरान जो भी गणनाएं वो करते थे उन्हें कविता के रूप में याद रखते या फिर कागज में लिख अपने प्रार्थना चक्र में छिपा देते थे. 

नैन सिंह रावत ने ये उपलब्धियां भी हासिल की थी 

नैन सिंह रावत ने ही सबसे पहले दुनिया को बताया कि लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है, उसके अक्षांश और देशांतर क्या हैं? यही नहीं उन्होंने ब्रहमपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि स्वांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी हैं. नैन सिंह ने ही दुनिया को सबसे पहले सतलुज और सिंधु नदी के स्रोत भी बताए थे. 

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नैन सिंह रावत ने ही सबसे पहले दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों से रूबरू कराया. इस ख़ास यात्रा के दौरान नैन सिंह अपनी समझदारी, हिम्मत, अडिग साहस और वैज्ञानिक दक्षता से तिब्बत का नक्शा बना डाला, लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था कई बार तो उन्होंने इस काम के लिए जान जोखिम में भी डाली थी. 

इस तमाम उपलब्धियों के बावजूद अधिकतर लोग अब भी नैन सिंह रावत को नहीं जानते हैं.