‘मिर्ज़ा ग़ालिब’… इस नाम को अगर शायरी की पर्यायवाची कहा जाए, तो शायद ही किसी को आपत्ति हो.
यहां लोग शायरी को बाद में जानते हैं, ग़ालिब से उनकी पहचान पहले होती है. अब आलम ये है कि शेर में अगर ‘ग़ालिब’ नाम आ जाए, तो उसके माने की गहराई बढ़ जाती है. सुनने वाले भी थोड़े संजीदा हो जाते हैं. लेकिन मसला ये है कि हर वो शेर जिसमें ‘ग़ालिब’ का नाम आए वो उन्होंने का हो, ये ज़रूरी नहीं.

ये चंद शेर हैं, जिन्हें हम जानते तो हैं ग़ालिब के नाम से, लेकिन उनका असल शायर कोई और है.
ख़ुदा के वास्ते पर्दा न उठा काबे से वाइज़कहीं ऐसा न हो यहां भी वही काफ़िर सनम निकले
*इस शेर को जगजीत ने ग़ालिब को समर्पित एक गज़ल में गाया था, लेकिन ग़ालिब की किसी दीवान में ये शेर नहीं पाया जाता.
चंद तस्वीर-ए-बुतां चंद हसीनों के ख़तुतबा’द मरने के मिरे घर से ये सामां निकलें
-बज़्म अकबराबादी
ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ करया वो जगह बता दे जहां पर ख़ुदा न हो
-अज्ञात
दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीरां को देख करमेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है
-अब्दुल हमीद अदम
जिस में लाखों बरस की हूरें होऐसी जन्नत का क्या करे कोई
-अज्ञात
हाथों की लकीरों पर मत जा ए ‘ग़ालिब’नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते
वाइज़ तेरी दुआ में असर है तो मस्जिद को हिला के दिखानहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख
हज़ारों एब देखते हैं हम दूसरों के पहलू मेंख़ुद अपने किरदार में हम फ़रिश्ते हो जैसे
रास्ते कहां ख़त्म होते हैं, ज़िंदगी के सफ़र मेंमंज़िल तो वहीं हैं, जहां ख़्वाहिशें थम जायें
इनके अलावा भी बहुत से शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम पर वॉट्स्ऐप पर घूम रहे हैं. उनके लिए यही कहा जा सकता है कि