सबकी ज़िन्दगी एक जैसी नहीं होती. कुछ लोगों को अपने सपनों को मारना पड़ता है. अगर कुछ कर दिखाने, कुछ बनने का जज़्बा हो, तो इंसान मुश्किलों को पार कर ही लेता है.

कुछ ऐसी ही कहानी है कल्पना की. Humans of Bombay ने अपने पोस्ट में कल्पना की कहानी साझा की है.

ज़िन्दगी की मुश्किलों के खिलाफ़ हर बार उठ खड़े होने की कल्पना की हिम्मत हम सभी के लिए एक प्रेरणा है.

Patrika

‘मेरा जन्म ओकला के एक दलित परिवार में हुआ. जब मैं 12 साल की थी, तो सभी ने मेरे पिताजी पर मेरी शादी करवाने का दबाव बनाया. मेरे पिता मेरी शादी नहीं करवाना चाहते थे लेकिन समाज के दबाव में आकर मेरे से 10 साल बड़े, मुंबई के एक पुरुष से मेरी शादी करवा दी.

मैं मुंबई आई और मुझे पता चला कि उसका परिवार एक कमरे के घर में रहता था और उसके पास नौकरी भी नहीं थी. मेरे साथ काफ़ी बुरा बर्ताव किया जाता. अगर खाने में नमक तेज़ हो जाता या कोई और गड़बड़ी हो जाती तो मुझे मारा जाता… वो किसी नर्क से कम नहीं था.

6 महीने बाद मेरे पिता मुझ से मिलने आए, वो मुझे पहचान भी नहीं रहे थे. मेरे कपड़े मैले-कुचैले थे, मेरी हंसी गायब हो गई थी. मेरे ससुरालवालों से झगड़कर वो मुझे अपने साथ ले गए. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उसे किसी बुरे सपने की तरह भूल जाऊं.

लोगों ने मुझे इन सबका दोषी क़रार दिया. मैंने आत्महत्या करने की भी कोशिश की. इस पर भी उन्होंने कहा कि मैंने ही कुछ ग़लत किया था, जबकी असलियत इसके ठीक विपरीत थी. तब मैंने सोचा कि जब मुझे ही इस सब का ज़िम्मेदार कहा जाना है, तो मैं अपनी ज़िन्दगी क्यों न जिऊं?

इस सोच के साथ मैं मुंबई वापस आ गई और सिलाई का काम करने लगी. वो पहली बार था जब मैंने 100 रुपए का नोट देखा था. मैंने बचत करनी शुरू की, बचत के पैसों से कल्याण में किराए का कमरा लिया और अपने परिवार को अपने पास बुला लिया. हमारी अच्छी कट रही थी लेकिन जब हम अपनी बहन की ज़िन्दगी नहीं बचा पाए तो मुझे एहसास हुआ कि अपने परिवार का ध्यान रखने के लिए मुझे और पैसों की ज़रूरत है. मैंने सरकारी लोन लिया और अपना फ़र्नीचर बिज़नेस शुरू किया. बिज़नेस अच्छा चल पड़ा और हमारी ज़िन्दगी बदल गई.

हमारे आस-पास कई लोग संघर्ष करते हैं. उनकी मदद करने के लिए मैंने एक NGO खोला ताकी दूसरों को भी अपने पैरों पर खड़े होने के लिए लोन मिल सके. कभी-कभी मैं अपनी जेब से भी असहायों की मदद करती और इस तरह लोगों के बीच मेरा नाम होने लगा.

इसीलिए Kamani Tubes के वर्कर्स ने मुझ से मदद मांगी. उन पर 116 करोड़ का कर्ज़ था. सबने कहा कि उनकी सहायता करना आत्महत्या करने के समान है, लेकिन 500 से ज़्यादा परिवारों की ज़िन्दगी दांव पर लगी थी. मैंने वित्त मंत्री से बात की और वर्कर्स का कर्ज़ का पैसा कम करवाया. मैंने जो भी किया, सब नया किया और इससे मेरे अंदर का डर पूरी तरह ख़त्म हो गया.

2006 में मैं चेयरमैन बनी और बैंक लोन चुकाने के लिए हमें 7 साल का वक़्त दिया गया. कर्मचारियों को नियमित पगार देने के बावजूद हमने 1 साल में बैंक का कर्ज़ लौटा दिया. उस कंपनी का टर्नओवर मेरी सोच से भी ज़्यादा है. मेरे काम के लिए 2013 में मुझे पद्म श्री से नवाज़ा गया.

मेरी कहानी अविश्वसनीय है. एक दलित बाल-वधू से लेकर करोड़ों की कंपनी चलाने तक का सफ़र अकल्पनीय है. ये सफ़र आसान नहीं था लेकिन चुनौतियों से ही मुझे शक्ति मिली. ख़ुद पर यक़ीन नहीं होता तो ज़िन्दगी से लड़ना भी संभव नहीं होता.’

Amar Ujala

हालात कितने भी बुरे हों लेकिन अगर इरादे बुलंद है तो फ़र्श से अर्श तक पहुंचा जा सकता है, कल्पना की ज़िदगी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.