जब भी किसी बच्ची, लड़की या औरत की इज़्ज़त को सरेआम लूट लिया जाता है, तब औरतों की सुरक्षा, रक्षा, आदि चौपालों और चाय की दुकानों से लेकर न्यूज़रूम तक में चर्चा का विषय बन जाते हैं. फिर अगले ही रोज़ कोई नई घटना घट जाती है और हम बलात्कार, शोषण आदि की घटनाओं को भूल जाते हैं. कुछ नहीं बदलता तो वो है, मनचलों की आदतें. कुछ नहीं टूटता तो वो हैं दुराचारियों की हिम्मत.

Metro

दिल्ली मेट्रो… समय बचाती है और एसी का मज़ा अलग. सुरक्षा की सारी व्यवस्थाओं से लैस दिल्ली मेट्रो दिल्ली की लाइफ़लाइन है. ठीक वैसे ही जैसे मुंबई की लाइफ़लाइन है मुंबई की लोकल ट्रेनें.

सवाल ये है कि दिल्ली मेट्रो कितनी सुरक्षित है? मेघा का Twitter Thread पढ़ने के बाद आप भी सोच में पड़ जायेंगे.

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BITS पिलानी की छात्रा मेघा रविवार को लगभग 6 महीने बाद दिल्ली मेट्रो पर सवार हुईं थी, पर उनके साथ जो हुआ, वो रौंगटे खड़े कर देने वाला था.

नमस्कार सहेलियों! अगर आपको लगता है कि आप दिल्ली मेट्रो में सुरक्षित हैं, तो ये आपकी गलतफ़हमी है. मैं बताती हूं कैसे?

एक आदमी मेरा पीछा कर रहा था, सिर्फ़ 20 मिनट पहले. लगभग 8 बजे. रविवार रात को. काफ़ी नॉर्मल है ना ये?

वो आदमी पूरे सफ़र में मेरे पास ही खड़ा था. ये भी काफ़ी नॉर्मल है, क्योंकि बहुत से लोग एक ही रास्ते पर सफ़र करते हैं. किसी पर भी शक़ नहीं किया जा सकता न?

मैं गोल्फ़ कोर्स मेट्रो स्टेशन पर उतर गई. वो आदमी मेरे पास ही खड़ा था और फ़ोन पर किसी से बात करने का नाटक कर रहा था. मैं अपने माता-पिता का इंतज़ार कर रही थी.

वो आदमी मेरी बातें सुनने की कोशिश कर रहा था कि मैं अपने पापा से क्या बातें कर रही हूं और कहां जा रही हूं. मुझे लगा कि ये नॉर्मल नहीं है और मैंने Earphone लगा लिए.

मैं माइक पर धीरे-धीरे बात करने लगी. वो आदमी मेरे चारों तरफ़ घूमने लगा. मैंने अपने पापा को देखा और मैं चलने लगी. वहां पर कोई सिक्योरिटी नहीं थी.

मैं उस व्यक्ति पर जानबूझ कर आरोप नहीं लगाना चाहती थी. इसीलिये मेट्रो से निकलते वक़्त मैं रुक-रुक के चल रही थी. मैं जहां रुक रही थी, वो भी मेरे साथ रुक रहा था. मैं पापा की कार की तरफ़ दौड़ने लगी, तो उसने मुझे धक्का देने की कोशिश की.

सीढ़ीयां ख़त्म होती हैं, वहीं एक अंधेरे कोने में मैंने उसे ढकेलने का प्रयास किया और चांटे मारे. मैंने हल्ला मचाया और उसे रुकने को कहा, ताकि मैं उसे पकड़ सकूं.

मैंने देखा कि सिक्योरिटी गार्ड पनवाड़ी की दुकान पर आराम से कुछ लोगों से बातें कर रहा था. पर उस आदमी को पकड़ने के लिये कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं.

मेरे पापा ने ये सब देखा. वो कार से निकले और उस आदमी को पकड़ने के लिए दौड़े. सभी मूक दर्शक बन, तमाशा देख रहे थे. सबने चौंकने का नाटक किया. जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो.

सबसे मज़े की बात: गार्ड ने मेरे पास आकर कहा: ‘मैडम हमें क्यों नहीं बताया?’. मेरे इतनी ज़ोर से चिल्लाने के बावजूद.

दूसरे लोग: मैडम ये करती, वो करती. 

बेवकूफ़ों! जब किसी पर हमला होता है, तो उसके सोचने-समझने की शक्ति ख़त्म हो जाती है. मेरे से जो भी हो सकता था मैंने किया.

मैंने साल भर पहले शहर छोड़ दिया. अच्छा हुआ कि छोड़ दिया. पिछले 6 महीनों में मैंने पहली बार मेट्रो ली और मैं बहुत ज़्यादा दुखी हूं.

दोस्तों! आप सेफ़ नहीं हो. आपकी मदद आप ख़ुद कर सकते हो. क्योंकि पुलिस और सिक्योरिटी भ्रम है और कुछ नहीं.

सुरक्षित रहें. विपरीत परिस्थितियों में जल्दी से सोचें. आस-पास की गतिविधियों पर ध्यान दें.

आख़िर में: मैं डरी नहीं हूं पर इस घटना ने मुझे झकझोर दिया है. हम औरतें ऐसी हरकतें Deserve नहीं करतीं.

ऐसी कई घटनायें आपके साथ भी घटी होंगी. चुप बैठने से जख़्म नासूर बन जाता है. बेहतर हो कि मुंहतोड़ जवाब दिया जाये.

Source: Story Pick