इस पूरी दुनिया में, एक परिवार ही ऐसा है जो आपको बिना शर्त और निस्वार्थ भाव से प्यार कर सकता है. आमतौर पर ऐसा परिवार में ही होता है कि किसी एक का सपना पूरा करने के लिए परिवार में दूसरा व्यक्ति त्याग कर देता है. 

अपने परिवार से कुछ ऐसा ही सहारा और प्यार मनप्रीत सिंह को मिला. पढ़िए उनकी कहानी. 

मैं अपने परिवार में सबसे छोटा हूं. दुबई में मेरे पिताजी एक कारपेंटर के रूप में काम करते थे. मुझे हमेशा मेरी मां और मेरे भाइयों ने बड़े प्यार से रखा. मेरी मां को हमेशा लगता था कि मैं अपने भाइयों की तरह बहादुर नहीं हूं. इसलिए चोट लगने के डर से वो मुझे कभी भी खेलने नहीं भेजती थीं. जब मैं 10 साल का था तब मेरे भाइयों ने हॉकी खेलना शुरू कर दिया था और वे ट्रॉफियों के साथ घर लौटा करते थे. मैंने तभी सोच लिया था कि मुझे भी हॉकी खेलना है. 
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मुझे अपनी मां से लड़ना पड़ता था ताकि वो मुझे खेलने के लिए जाने दें. एक बार उन्होंने मुझे घर पर भी बंद कर दिया था ताकि मैं अपने भाइयों के साथ प्रैक्टिस न कर पाऊं. लेकिन किसी तरह मैं घर से निकल गया और मैदान की तरफ़ भागा! जब कोच ने मुझे ख़ेल के लिए इतना बेक़रार होते देखा तो उन्होंने मेरे भाइयों से बोला कि मुझे एक मौका दें और फिर देखें कि क्या होता है. 13 साल की उम्र में मैंने अपनी जीत की पहली रक़म 500 रुपये मां को दिए थे, जिसको मैंने एक टूर्नामेंट में जीता था. उन्हें मुझ पर बहुत गर्व हुआ, उनका छोटा सा बच्चा आख़िरकार अब बड़ा हो गया था उन्होंने मुझे गले लगाया और रोने लगी. ये मेरी मां का सपना था कि उसके तीनों बेटे देश का प्रतिनिधित्व करें. 
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मनप्रीत के जीवन में सब सही जा रहा था की तभी उनके पिता दुबई से वापिस आ गए और उनकी तबियत इतनी बिगड़ गई कि वो काम करने की स्थिति में नहीं रहे. जिसकी वजह से मनप्रीत के भाइयों पर घर की सारी जिम्मेदारियां आ गईं. 

मेरे भाइयों के पास हॉकी छोड़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था. उन्होंने काम करना शुरू कर दिया लेकिन उन्होंने मेरी ट्रेनिंग के लिए अपने पास से रुपये दिए. वो चाहते थे कि मैं अपना सपना पूरा करूं जो वो नहीं कर सकें.तो किसी और के लिए न सही, मैंने अपने भाइयों के लिए ख़ेल में अपना पूरा दिल लगाया. मैंने हर वो टूर्नामेंट खेला जो मेरे रास्तें में आया और अपना पूरा दिन प्रैक्टिस करने में लगाया. ज़ल्द ही मैं स्टेट लेवल पर खेलने लगा. मगर मेरे जीवन में मोड़ तब आया जब मैं 18 साल का हुआ, मैं मेल इंडियन जूनियर हॉकी टीम के ट्रायआउट्स के लिए गया और किसी तरह टीम में जगह भी बना ली. मैं धीरे-धीरे सफ़लता की सीढ़ियां चढ़ रहा था और दो साल के अंदर मैं टीम का कप्तान भी बन गया. मुझे आज भी वो पल याद है, जब उन्होंने घोषणा की ‘मनप्रीत सिंह कप्तान हैं’, मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था. मैं तब ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी गया था और मेरे परिवार को जो गर्व महसूस हुआ था, जब भी मैं कुछ हासिल करता था तो मुझे उससे बहुत ताक़त मिलती थी. 
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आज मैं मेल इंडियन हॉकी टीम का कप्तान हूं और बतौर भारतीय टीम हम जगह-जगह जा कर देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. ये सब इसलिए मुमकिन हुआ है क्योंकि मेरे भाइयों ने मेरे लिए अपने सपनों की क़ुर्बानी दी. वो मेरे लिए बिना शर्त के खड़े रहे. मेरे पास बेहतर करने के लिए, बेहतर खेलने के लिए प्रेरणा है – केवल इसलिए कि मुझे पता है कि वो हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए खड़े रहेंगे. मेरे यहां तक पहुंचने का कारण मेरे भाई हैं और उनके बिना, मैं कुछ भी नहीं हूं. 

परिवार का साथ हो तो इंसान नामुमकिन काम भी मुमकिन कर दिखा देता है.