मुसीबतें किसी को गिरा देती हैं, तो किसी को उठा देती हैं…

इसकी मिसाल हैं मणिपुर की लाईबी ओइनाम, जिन्होंने किसी की नहीं सुनी और सिर्फ़ वो किया जो उनके परिवार के लिए सही था. वो एक मां हैं, एक पत्नी हैं और सबसे बड़ी बात वो मणिपुर जैसी जगह पर एक ऑटोरिक्शा ड्राइवर हैं. उनका ये सफ़र बिलकुल भी आसान नहीं था, लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं था. इसलिए उन्होंने ख़ुद काम करना शुरू कर दिया. 

लाईबी ने अपने घर की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए ईंट भट्टे पर भी काम किया था. मगर उन्होंने ईंट भट्टे तक ही रहना उचित नहीं समझा, वो उससे बाहर निकलीं और मणिपुर की सड़कों पर ऑटो चलाकर पहली महिला ऑटो ड्राइवर बनीं. लाईबी पांगी बाज़ार के पास ऑटो स्टैंड से अपना ऑटो चलाती हैं.

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दरअसल, लाईबी के पति को डायबिटीज़ है और दो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के चलते उनको काम करना पड़ा. जब उन्होंने ऑटो चलाना शुरू किया था तब लोगों ने उन्हें अपमानित किया था क्योंकि मणिपुर जैसे शहर के लिए ये बहुत बड़ी बात थी. मगर आज 8 साल बाद स्थिति बदल चुकी है और लाईबी जहां जाती हैं, लोग उन्हें सम्मान देते हैं. उन्होंने अपने 8 साल पहले के अनुभव को बताते हुए कहा,

‘जब मैंने ऑटो चलाना शुरू किया तो लोगों ने मुझे ताने मारे, मुझे अपमानित किया और मुझे चिढ़ाया लेकिन मेरे पास बहुत कम विकल्प थे. इसलिए मैं पीछे नहीं हटी.

शुरू में लाईबी ने ऑटो किराए पर चलवाया, लेकिन ड्राइवरों की लापरवाही के चलते उन्होंने ख़ुद ऑटो चलाना सही समझा. जब वो सड़क पर ऑटो लेकर निकलीं, तो उनके साथ बहुत ज़्यादती हुई. लाईबी ने बताया

मेरे ऑटो को ट्रैफ़िक पुलिस रोक देती थी और मुझे सज़ा भी देती थी. एक बार मैंने कुछ यात्रियों को बिठाने के लिए सिग्नल तोड़ दिया, तभी वो मेरे ऑटो को तोड़ने लगे और मुझे मारा भी.
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उनके साथ दुर्व्यवहार सिर्फ़ बाहरवालों ने नहीं, बल्कि घरवालों ने भी किया था. उनका पति शराब पीकर उन्हें मारता था और लोगों की बातों से बच्चे भी उनसे नफ़रत करने लगे थे. मगर लाईबी चट्टान की तरह अडिग रहीं.

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कहते हैं न कि हर रात के बाद सवेरा आता है. वो सवेरा लाईबी की ज़िंदगी में भी आया और उन पर साल 2011 में एक स्थानीय फ़िल्म निर्माता मीना लोंग्ज़ाम की नज़र पड़ी. फिर उन्होंने लाईबी की ज़िंदगी पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई जिसे 2015 में नॉन फ़िक्शन कैटेगरी में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.

फ़िल्म की निर्माता मीना ने बताया,

मैं पांगी बाज़ार में खड़ी थी, जब मेरी नज़र लाईबी पर पड़ी. खाकी पैंट और शर्ट में एक महिला को वो भी मणिपुर में देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ.

इस फ़िल्म ने लाईबी के प्रति लोगों का नज़रिया बदला है. लाईबी को पैसों से भी मज़बूत बनाया है. इसके बाद उन्होंने अपने घर के लिये लोन लिया और नया ऑटो भी ख़रीदा. 

उन्होंने बताया,

जो मेरा मज़ाक उड़ाते थे, वो अब मुझे सम्मान देते हैं. यहां तक कि ट्रैफ़िक पुलिस भी मुझे ‘सलाम’ करती है. अब कोई नाराज़गी नहीं है.
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लाईबी का ये सफ़र इसलिए इतना संघर्षभरा था क्योंकि मणिपुर में महिलाएं केवल मज़दूरी, गौरक्षक या फिर बुनाई का काम करती हैं. ऐसे में जब एक महिला पुरुषों के करियर को अपना बनाती है, तो दिक्कत आती ही है.

मगर लाईबी ने अपने संघर्ष का डटकर सामना किया और आज लोगों के सामने डटकर खड़ी भी हैं. 

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