चलिए ‘मां’ के बारे में बात करते हैं. जी हां, मुझे पता है कि आप वो बार-बार नहीं सुनना चाहते कि, ‘मां स्नेह की मूरत होती है’, ‘भगवान का दूसरा रूप होती है’, ‘पहली गुरू होती है’. अब समय आ गया है अपने हिसाब से अपनी मां की परिभाषा गढ़ने का. जैसे मेरे लिए मेरी मां सुबह का पहला फोन कॉल है, मेरी मां मेरे लिए सुबह की चाय है, शहर में जी रहे एक बेचैन बच्चे का चैन है, चरित्र की धूल को साफ कर उसमें अपने रंग भरने वाली एक कलाकार है. वो एक ऐसी सोच है, जो कभी भी संकुचित नहीं होती. मेरी मां मेरे लिए धागा है. एक ऐसा धागा, जिसने हमारे संपूर्ण परिवार को अपने आप में समेट रखा है. आज भी साइकिल चलाते वक़्त मां ही याद आती है. मेरी पहली साइकिल ट्रेनर है मेरी मां. ‘स्कूल के प्यार ‘के मेसेज का रिप्लाई करने वाली मेरी मां ही है. देखिए, समय के साथ-साथ कितनी बदल गई है मां. मां के माने सिर्फ़ जन्म देने से ही पूरे नहीं हो जाते, असल प्रक्रिया शज़र के फूलों की उम्मीद न रख उसे अपने पसीने से नि:स्वार्थ सींचने से होती है.

हमारे कुछ लेखकों ने अपने हिसाब से अपनी मां को बयां करने की कोशिश की है. हालांकि वो अनन्त है, लेकिन इनकी कोशिश ने मां के एक-आधे अहसास को तो छुआ ही है.

मां का ख़्याल भी कितना खुशनुमा होता है.

आज तक मां को भला कौन समझ पाया है?

मां ही तो है, जो जीवन के हर हिस्से में शामिल है.

मां हमारी आंखों के ही सपने देखती है.

मां के मायने सबके लिए अलग भले हों, पर प्यार एक सा होता है.

बिना मां की दुनिया कैसी होती है, ये मां से दूर रहने वाला बच्चा ही समझता है.

मां की फटकार में भी उनका बेपनाह प्यार ही होता है.

हमारी फरमाइशों पर मां न्योछावर हो जाती है.

मां की दुआओं से ही तो हमारी दुनिया में इतना उजाला है.

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