हमारे देश में बहुत बड़े-बड़े खिलाड़ी हुए हैं मगर कुछ तो फ़र्श से अर्श तक पहुंचने में कामयाब हुए पर कुछ के बारे में कम ही लोग जानते हैं. ऐसे ही एक एथलीट हैं नारायण ठाकुर, जिनके बारे में ज़्यादा लोगों को नहीं पता है. 27 वर्षीय इस पैरा एथलीट के बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि किसी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जो उसैन बोल्ट और जस्टिन गैटलिन जैसे अंतर्राष्ट्रीय एथलीटों की मूर्ति लगाकर बड़ा हुआ, वो ख़ुद इतना बड़ा इतिहास रचेगा. नारायण ठाकुर भारत के इतिहास में पहले पैरा एथलीट हैं, जिन्होंने पिछले साल अक्टूबर में इंडोनेशिया में आयोजित 2018 एशियाई पैरा खेलों में स्वर्ण पदक जीत कर देश का नाम रौशन किया था.
Indiatimes को दिए इंटरव्यू में नारायण ठाकुर ने अपनी ज़िन्दगी के कठिन सफ़र और अनुभवों को ख़ुद अपनी ज़ुबानी शेयर किया. आज हम आपके लिए लेकर आये हैं उनकी ज़िन्दगी की परिश्रम भरी कहानी:
होटल वेटर से लेकर गोल्ड मेडलिस्ट तक का सफ़र
अपने भविष्य को संवारने के लिए नारायण ने फ़ैसला किया कि वो शारीरिक रूप से अक्षम खिलाड़ियों की इंडियन क्रिकेट टीम का हिस्सा बनेंगे. मगर इसमें भी उनकी आर्थिक स्थिति ने रोड़ा बनकर उनको रोका. हालांकि, इस स्प्रिंटर का सपना था कि वो क्रिकेटर बने लेकिन शरीर का बायां हिस्सा काम नहीं करने की वजह से उन्हें एथलेटिक्स अपनाना पड़ा. 2010 में जब ठाकुर ने अनाथालय छोड़ा तब उनके परिवार पर एक और विपदा आ गयी.
ठाकुर ने बताया, ‘समयपुर बादली की जिन झुग्गियों में हम रहते थे वो हटा दी गईं. हमारे पास जगह को छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. पैसे की किल्लत के चलते 2 वक़्त का खाना भी नहीं जुटा पा रहे थे ऐसे में मैंने बस साफ़ करने का काम किया और एक ढाबे पर भी वेटर की नौकरी की लेकिन मैंने खेल को नहीं छोड़ा चाहे हालात कैसे भी थे.’
मगर इन सब बाधाओं को पार करते हुए नारायण ने हौसला नहीं छोड़ा. उन्होंने अपनी मां के साथ पान की दूकान पर काम करना शुरू किया. वो सुबह 5 बजे उठ जाते और सुबह से रात के 10 बजे तक वो दुकान पर काम करते थे. उसके बाद वो बस क्लीनर की तरह काम करते थे. उसके कुछ सालों बाद उन्होंने एक पेट्रोल पंप पर भी काम किया और एक होटल में बतौर वेटर भी काम किया. इतना सब काम करने के बाद भी वो दिन के मात्र 200 रुपये कमा कर सुबह के चार बजे घर वापस आते थे.
हालांकि, उनके हर रास्ते पर उनकी बीमारी हेमीपरिसिस उनकी वृद्धि को बाधित कर रही थी. मगर कहते हैं न कि जो होता है अच्छे के लिए होता है. ऐसा ही कुछ हुआ नारायण के साथ. क्रिकेट टीम में उनका सिलेक्शन न होना उनके अच्छे के लिए ही हुआ क्योंकि क्रिकेट नहीं, एक रनर (धावक) के रूप में एक सफ़ल करियर ने उनका इंतजार कर रहा था.
एक दोस्त के मार्गदर्शन पर वह जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम गए और एक पत्थर में अपने आदर्श वाक्य को उकेरा: ‘भारत के लिए एक स्वर्ण पदक लाना है.’ चाहे इसके लिए उनको तीन बसों को बदलना हो, एक रास्ता हो और जिसपर हर दिन चार घंटो सफ़र करना हो. लेकिन नारायण का लक्ष्य उनके दिमाग़ में स्पष्ट था.
साल 2015 में, उन्होंने 2018 एशियाई पैरा खेलों के लिए अपना रन-अप शुरू किया. नारायण के कोच, अमित खन्ना जो खुद 1995 से 1998 तक 100 मीटर में सबसे तेज भारतीय एथलीट थे, नारायण के धैर्य और परिश्रम से बहुत प्रभावित थे.
अमित खन्ना ने बताया,
‘मैं यहां बहुत से बच्चों को प्रशिक्षित कर रहा था और मैंने उसे 2015 के आसपास देखा, जब वह त्यागराज स्टेडियम में ख़ुद से ही प्रैक्टिस करता था. तब मैंने उसके रनिंग स्टाइल टेक्नीक में कुछ कमियां देखीं और में उसके पास गया उससे पूछा कि तुक किसकी तैयारी कर रहे हो? तब उसने बताया कि वो देश के लिए पदक जीतना चाहता है. उसकी ये बात मेरे दिल को छू गई. बाद में उसने अपनी पूरी कहानी बताई पान मसाले की रेड़ी और बाकी सब, उसकी दर्दनाक कहानी ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया.’
नारायण की उपलब्धियां
जिसके लिए चयन परीक्षणों के लिए उन्हें चीन भी जाना था. लेकिन दुर्भाग्यवश, लेकिन ट्रायल के लिए जाने से एक दिन पहले भारत सरकार ने उन्हें सूचित किया कि उन्हें सारी लागत स्वयं वहन करनी होगी! और इतनी रक़म उनके पास नहीं थी और न ही उनके पास टाइम ही था कि वो इन पैसों का इंतज़ाम कर सकते. मात्र 12 घंटों में उनको लगभग डेढ़ लाख रुपयों की ज़रूरत थी. उन्होंने अपने दोस्तों से भी मदद मांगी, और अपने कोच की मदद से वो चीन पहुंच गए, लेकिन कुछ श्रेणी के मुद्दे के कारण उन्हें पदक के बिना भारत लौटना पड़ा. मगर 2018 में नारायण को पैरा एशियन गेम्स 2018 के लिए चुना गया, जहां उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया.
‘पैरा एशियन गेम्स’ में गोल्ड जीतने के बाद भी फिलहाल नारायण ठाकुर के पास कोई नौकरी नहीं है. वो अपनी मां को मदद करने के लिए पान/गुटखा की दुकान चलाते हैं. हालांकि, उन्हें अब उम्मीद है कि उनका जीवन बदलेगा.
विपरीत स्तिथि में शरीर से संपन्न हम लोग भी घबरा जाते हैं परेशानी के आगे घुटने टेक देते हैं और लक्ष्य से भटक जाते हैं लेकिन ठाकुर ज़िंदगी और सपने जीने का जो ने उदाहरण पेश किया है वो काबिल-ए-तारीफ है. खेल के प्रति इस सोच और जूनून को स्पोर्ट्स फ्लैशेस का सलाम!