कमल कुमार एक राज्यस्तरीय खिलाड़ी हैं. कई मेडल जीतने वाले कमल आज कूड़ा उठाकर अपना गुज़ारा कर रहे हैं. NDTV में छपी 2013 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कानपुर के ग्वालटोली में रहने वाले कमल घर-घर जाकर कूड़ा उठाते हैं और बाकी वक़्त में पान की दुकान चलाते हैं.
पी.वी.सिन्धू, पंकज आडवाणी, सायना नेहवाल, मैरी कॉम जब पदक जीत कर लाते हैं, तो खुशी होती है ना? हिन्दुस्तानी होने पर गर्व होता है. हम सोशल मीडिया पर उन्हें बधाई देते हैं. उनकी एक झलक पाने के लिए आतुर हो उठते हैं. बार-बार उनके विक्ट्री शॉट्स को Rewind करके देखते हैं. क्यों? सही कहा ना?
खिलाड़ी सालों मेहनत करते हैं, सेलेक्ट होते हैं. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश के लिए पदक जीतकर लाते हैं. आपकी हमारी वाह-वाही पाते हैं… लेकिन उसके बाद क्या?
कुछ खिलाड़ी तो आजीवन हम हिन्दुस्तानियों और सरकार के आंखों के तारे बन जाते हैं. Ad Companies वाले उन्हें विभिन्न ऑफ़र्स से लाद देते हैं. इससे हमें कोई आपत्ति नहीं, उनकी मेहनत का फल उन्हें मिलना ही चाहिए. लेकिन उन खिलाड़ियों का क्या? जो पदक जीतने के बाद भी गुमनामी और गरीबी के अंधेरों में गुम हो जाते हैं? जिन्हें पेट की भूख इस तरह मजबूर कर देती है उन्हें अपना सपना भूलना पड़ता है.
हमारे देश में ऐसे बहुत से खिलाड़ी हैं जिन्होंने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर देश को कई पदक दिलाए. बाद में गरीबी के कारण किसी खिलाड़ी को सब्ज़ी बेचनी पड़ी, तो किसी को कूड़ा उठाना पड़ा.
1. कमल कुमार, बॉक्सर
उन्होंने राष्ट्र स्तर पर कई प्रतियोगिताओं में यूपी के लिए पदक जीते हैं. अपने साथ इतनी नाइंसाफ़ी होने के बाद भी कमल मानते हैं कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता. कमल का सपना है कि उनके बच्चे देश के लिए पदक जीतें. राज्य के लिए पदक जीतने के बावजूद सरकार उनका उचित तरह से सम्मान न कर सकी. न उन्हें नौकरी मिली और न ही आर्थिक लाभ.
2. गोपाल भेंगरा, 1978 हॉकी वर्ल्ड कप Squad Member
इंटरनेट की खाक छानते हुए गोपाल के बारे में पता चला. India Today में छपे 1999 के एक लेख से. गोपाल भेंगरा रांची से 55 किमी दूर एक गांव में रहते हैं. 1978 में अर्जेंटिना में हुए विश्व कप में भारत की तरफ़ से इन्होंने मैच खेले थे. वर्ल्ड कप घर नहीं आया उस बार, पाकिस्तान ने जीता था विश्व कप. लेकिन क्या इससे गोपाल का योगदान कम हो गया? 1999 में वे पत्थर तोड़कर अपने परिवार का गुज़ारा करते थे. 1979 में उन्होंने रिटायरमेंट ले ली थी. इसके बाद कोई नेता, अभिनेता, खिलाड़ी उनकी मदद को आगे नहीं आया. उन्हें मज़दूरी कर अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ा.
इस साल भी उन्हें ख़बरों में जगह मिली, क्योंकि वे सुनील गावस्कर से मिले थे.
3. आशा रॉय, धावक
आशा को देश की सबसे तेज़ महिला धावक घोषित किया गया था, लेकिन हमें यकीन है कि ज़्यादातर भारतीय उनके नाम से अपरिचित होंगे. पश्चिम बंगाल की आशा के पिता सब्ज़ी बेचते हैं, इसके बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर रिकॉर्ड कायम किये. नेशनल ओपन एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 2 स्वर्ण पदक जीतने के बावजूद आशा आज गरीबी और गुमनामी का जीवन व्यतीत कर रही हैं. पश्चिम बंगाल सरकार भी उन्हें एक नौकरी न दे सकी. उन्होंने 100 मीटर की दौड़ 11.80 सेकेंड में पूरी की थी. चोट के कारण रियो ओलंपिक वे हिस्सा नहीं ले पाईं.
4. रश्मिता पात्र, फुटबॉल खिलाड़ी
ओडिषा की इस खिलाड़ी ने कई अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मुक़ाबलों में हिस्सी लिया है. ग़रीबी ने उन्हें फुटबॉल छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. अपने गांव वापस जाकर उन्होंने विवाह कर लिया और आज एक पान दुकान चला रही हैं.
5. मुरलीकांत पेटकर, पैरालंपिक खिलाड़ी
पैरालंपिक में भारत को पहला पदक किसने दिलाया था? शायद ही ये सवाल किसी प्रतियोगिता परिक्षा में पूछा जाता हो. मुरलीकांत पेटकर ने 1972 में भारत को पैरालंपिक में पहला पदक दिलाया था. जर्मनी में आयोजित ओलंपिक में स्विमिंग में उन्होंने स्वर्ण जीता था. मुरलीकांत एक पूर्व सैनिक भी हैं. 1965 की जंग में बुरी तरह घायल होने के बाद उन्हें सेना से रिटायरमेंट लेना पड़ा. बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, सुशांत सिंह राजपूत उनके जीवन पर एक फ़िल्म का निर्माण कर रहे हैं, शायद इसके बाद उन्हें वो पहचान मिले जिसके वे हक़दार हैं.
6. निशा रानी दत्त, तीरंदाज़
झारखंड की तीरंदाज़ निशा को अपने परिवार की सहायता करने के लिए 2011 में ये खेल छोड़ना पड़ा. निशा ने एशियन ग्रैंड प्रिक्स में भारत को रिप्रिज़ेंट किया था. इंडिया टुडे के अनुसार, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई मेडल जीतने के बाद भी उन्हें अपने घर की मरम्मत के लिए अपना Equipment बेचना पड़ा. इतना सब होने के बाद सरकार ने उन्हें 5 लाख रुपये सहायता राशि देने की घोषणा की. लेकिन देश ने एक और टैलेंटेड खिलाड़ी खो दिया.
7. सीता साहु, रिले धावक
मध्य प्रदेश की सीता साहु ने 2011 में एथेंस में हुए स्पेशल ओलंपिक्स में 2 कांस्य पदक जीते थे. सीता अब गोलगप्पे बेचकर अपना गुज़ारा कर रही हैं. सरकार के रवैये के कारण सीता को इस तरह जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है. कई साल गरीबी में गुज़ारने के बाद सीता को आर्थिक मदद मिली. स्पोर्ट्स कीड़ा के अनुसार, NTPC ने उन्हें 6 लाख रुपये और एमपी सरकार ने उन्हें 3 लाख रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की. सीता खेल में वापसी करने वाली हैं.
8. नाउरी मुंडू, हॉकी खिलाड़ी
झारखंड की नाउरी ने कुल 19 बार नेशनल टीम में अपनी जगह बनाई थी. इंडिया टुडे के अनुसार, 2013 में वे एक स्कूल में पढ़ा रही थी. बच्चों को पढ़ाने से उन्हें 5000 रुपये मिल जाते हैं. 14 लोगों के परिवार को चलाने के लिए ये आय कुछ भी नहीं है, इसलिये नाउरी खेती भी करती हैं. सचिन तेंदुलकर राज्य सभा में पूर्व खिलाड़ियों को वित्तीय सुरक्षा दिलाने का मुद्दा उठाने वाले थे, ये बात अलग है कि उन्होंने बोलने नहीं दिया और उन्होंने सोशल मीडिया के सहारे अपनी बात रखी. अपनी स्पीच में उन्होंने नाउरी का ज़िक्र किया था.
9. सरवन सिंह, Hurdler
1954 एशियन गेम्स में 110 मीटर Hurdle में देश को स्वर्ण दिलाने वाले सरवन आज कैब चलाते हैं. 14.7 सेकेंड में 13 Hurdles पार करने वाले गरीबी को हराने में असमर्थ हो गए. पंजाब सरकार उन्हें सहायता के तौर पर मात्र 1500 रुपये देती है.
इनके अलावा कुछ ऐसे खिलाड़ी भी हैं जो गरीबी से लड़ते-लड़ते हार गए ज़िन्दगी की जंग-
10. शंकर लक्ष्मण, हॉकी
60 के दशक में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे शंकर. अर्जुन अवॉर्ड और पद्म श्री से सम्मानित होने के बावजूद इलाज के अभाव में शंकर की मृत्यु हो गई. इतने सारे अवॉर्ड जीतने के बावजूद भी इस महान खिलाड़ी की मृत्यु पैसों के अभाव के कारण हुई.
11. माखन सिंह, धावक
माखन सिंह ने 1962 के राष्ट्रीय खेलों में मिल्खा सिहं को हराया था. 1962 के एशियन गेम्स और 1964 के समर ओलंपिक्स में भी उन्होंने भारत की ओर से भाग लिया था.
1972 में सेना से रिटायर होने के बाद वे अपने गांव में स्टेशनरी की दुकान चलाते थे. मधुमेह से पीड़ित माखन जी को 1990 में पैर में चोट लग गई, जिसके बाद उनका पैर काटना पड़ा. अर्जुन अवॉर्ड विजेता माखन सिंह ने भी गरीबी में ही अपनी ज़ि्न्दगी की आख़िरी सांसे ली.
अपने खिलाड़ियों के प्रति हमारे ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैये को बदलने की ज़रूरत है.आम आदमी के साथ-साथ ये सरकार की ज़िम्मेदारी है कि देश का नाम रौशन करने वाले खिलाड़ियों को इतनी सुविधा तो दे कि वो इज़्ज़त से अपनी बाकी ज़िन्दगी गुज़र-बसर कर सकें.