27 सितंबर, 1931 को लाहौर के अखबार ‘द पीपल’ में एक लेख प्रकाशित हुआ. लेख का नाम था, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’. जेल में रहते हुए इसे लिखने वाले व्यक्ति अमर क्रांतिकारी भगत सिंह थे. अपने इस लेख के माध्यम से उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए थे. मॉर्डन युग में भी भगत सिंह का ये लेख प्रासंगिक बना हुआ है.
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भगत सिंह की तरह ही आज भी देश के कई तर्कशील युवा अक्सर हिंदू धर्म के महान ग्रंथों की सामयिक जटिलताओं के चलते इसे पूरी तरह से अपना नहीं पाते हैं. दूरदर्शन पर अक्सर महाभारत और रामायण जैसे कार्यक्रमों को देखकर लगता था कि अगर ये ऐतिहासिक पात्र काल्पनिक नहीं हैं, तो युद्ध का समय, इनके रहने और जीने का समय हज़ारों सालों में कैसे बंट सकता है.
भगत सिंह की तरह ही लेनिन, मार्क्स जैसी कई बड़ी हस्तियों ने एक कदम आगे बढ़ते हुए ईश्वर में अपनी निष्ठा ख़त्म की, कई लोग दर्शनशास्त्र की तरफ़ भी मुड़े. कुछ आस्तिकों ने दर्शन शास्त्र को मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होने वाला परिदृश्य बताया.
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लेकिन कई आस्तिक और फिलॉसॉफ़र भी महाभारत और उसके समय-काल से जुड़े अनुत्तरित सवालों के जवाब देने में सक्षम नहीं थे. ज़ाहिर है, रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथ इतिहास न होकर, पौराणिक और देव कथाओं में तब्दील होने शुरु हो चुके थे.
भारत के प्राचीन ग्रंथ, सत्य या मिथ्या?
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आईआईटी मुंबई से पास आउट इतिहासकार सुनील शेरॉन की महाभारत के समय काल को लेकर बेहद दिलचस्प राय है. उनकी एक थ्योरी के अनुसार, महाभारत को गैरज़रूरी तरीके से जटिल बनाया गया है. महाभारत में इस्तेमाल हुए संस्कृत श्लोकों के द्वारा इन महान ग्रंथों के रहस्य को सुलझाया जा सकता है.
सुनील के मुताबिक, भारत में वैदिक गुरुओं की मौजूदगी का कारण भारत का कर्म भूमि होना था. भारत एक ऐसी जगह है, जहां करोड़ों देवी-देवताओं को पूजा जाता है. यहां सनातन धर्म का ज़बरदस्त प्रभाव था. ये एक ऐसी आध्यात्मिक और रहस्यमयी भूमि थी, जहां कर्मों के आधार पर इंसान की मोक्ष की दिशा तय होती है. वहीं दुनिया के बाकी देश भोग भूमि हैं, जहां इंसान भोग-विलास में मशगूल होकर अपनी ज़िन्दगी दिशाहीन तरीके से व्यतीत कर देता था.
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महाभारत और रामायण के दौर में दुनिया के इन बाकी देशों के बारे में उल्लेख नहीं होने का कारण इनका भोग-भूमि होना है. कोई भी संस्कृति और सभ्यता, जो सनातन धर्म के फ्रेमवर्क और शिक्षाओं से बाहर थी, उसे महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता था. इसलिए उनके अस्तित्व पर अधिक चर्चाएं नहीं मिलती. वहीं सनातन धर्म के मुताबिक, मनुष्य का अंतिम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है और भारत के ग्रंथों, पुराणों से लेकर प्राचीन साहित्य तक इस बात की कहीं न कहीं पुष्टि करते हैं.
महाभारत के समयकाल की सही अवधि
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पिछले 2500 सालों से ज़्यादातर लोग, महाभारत और रामायण दौर को बयां करते संस्कृत श्लोकों को लेकर एक चूक करते आए हैं. ‘देखन में छोटी लगे घाव करे गंभीर’ जैसी कहावत की तर्ज पर ही इस गलती के गहरे असर को समझा जा सकता है.
दरअसल जिन संस्कृत श्लोकों में महाभारत और रामायण काल के युगों का उल्लेख हुआ है, उनमें इस्तेमाल होने वाले अंकों को अब तक ग़लत तरीके से समझा जा रहा था.
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मसलन अगर हम महाभारत के इस गद्य पर गौर फरमाएं, तो समझ आएगा कि दश वर्ष सहस्त्राणि को पारंपरिक तौर पर 10,000 साल माना जाता है, जिस पर सुनकर ही सहज विश्वास नहीं होता. हालांकि अगर यहां सहस्त्राणि की असल संख्या यानि 10 साल (सहस्त्राणि=10) इस्तेमाल की जाए और शतानी की संख्या को 1 (शताणी=1) साल माना जाए तो पुराणों के ये श्लोक कुछ इस प्रकार होंगे.
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
त्रीणि वर्षसहस्राणि त्रेतायुगमिहोच्यते।
तथा वर्षसहस्रे द्वे द्वापरं परिमाणतः।
सहस्रमेकं वर्षाणां ततः कलियुगं स्मृतम्।
एतत्सहस्रपर्यन्तमहो ब्राह्ममुदाहृतम्।
इस बदलाव के अनुसार,
40 (4*10) साल कृति युग है. वहीं 30 साल त्रेता युग, 20 साल द्वापर युग और 10 साल कलियुग को कहा गया है. वहीं 1000 साल (120 साल की एक साइकिल) को ब्रहमा डे के तौर पर माना जाएगा. ये सभी संधि के बिना इस्तेमाल किए गए है. यानि इन अंकों में 20 प्रतिशत जोड़ देने के बाद इनकी संख्या क्रमश: 48 साल, 36 साल, 24 साल और 12 साल होगी.
इन संख्याओं के सामने आने के बाद महाभारत से जुड़े ज़्यादातर संस्कृत श्लोकों में उल्लेख किया गया समय, अब विश्वास लायक था.
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इस विश्लेषण से न केवल युगों और महायुगों के चक्र-काल का सही अंदाज़ा लगाया जा सकता है, बल्कि भारत के प्राचीन इतिहास की जटिलताओं को भी आसानी से समझा जा सकता है. इससे साबित होता है कि समय की उत्पत्ति (7th मन्वन्तर) 4174 BCE में हुई.
4174 BC से लेकर 3000 BCE भगवानों औऱ देवी देवताओं का दौर था, 3000 BCE में पूरी दुनिया को बाढ़ के प्रकोप ने काफ़ी नुकसान पहुंचाया. 3000 BCE से 1299 BCE तक 59 पीढ़ियां धरती पर अपना समय व्यतीत कर चुकी थी. भगवान श्री राम इस कड़ी में 60वीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
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3000BCE के बाद ही दुनिया में आबादी ने दूर-दराज के क्षेत्रों में बसना शुरु किया. कुछ लोगों को भारत से निकाल दिया गया और कुछ ऐसे भी थे जिन्हें बाहरी दुनिया में दिलचस्पी थी. इसके तहत ही भारत से अलग होकर मिडल ईस्ट अस्तित्व में आया. मिडिल ईस्ट से निकल यूरोप का निर्माण हुआ.
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जहां तक महाभारत के Scientific प्रमाण की बात थी, तो इससे जुड़ा सबसे बड़ा पुरातात्विक प्रमाण प्रोफ़ेसर बी. बी. लाल ने खोज निकाला था. वे भारत सरकार के पौरातात्विक विभाग में काम करते हैं. उन्होंने 1951 में हस्तिनापुर लोकेशन की खुदाई कर एक ऐसे Flooding Zone का पता लगाया था, जिसे 700 BCE का बताया जा रहा है.
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पुराणों में भी हस्तिनापुर में आई बाढ़ के प्रकोप का है. पुराणों मे कहा गया है कि परिक्शित की चार पुश्तों गुज़रने के बाद इस बात का ज़िक्र किया गया है. गौरतलब है कि परिक्शित युधिष्ठिर के पोते थे. इससे साफ़ है कि हस्तिनापुर में आई भयानक बाढ़ से पहले के 130-150 सालों का दौर, महाभारत युद्ध का दौर था.
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महाभारत के युद्ध की व्याख्या को कई लोगों ने गैरज़रूरी तरीके से जटिल बनाया है. इसके मुताबिक, महाभारत का युद्ध 3000-5000 BCE के बीच लड़ा गया था जो कि अविश्वसनीय है.. दरअसल इसके पीछे महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट (499 AD) का दिमाग था. आर्यभट्ट ने ही महायुग के असली समय यानि 120 सालों को एक ऐसे आंकड़ें में बदल दिया था, जिस पर विश्वास करना आसान नहीं था.
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आर्यभट्ट ने 120 सालों के महायुग की अवधि को अपने आकलनों के द्वारा 4,32,0000 साल बताया, जिसे सुनने पर ही विश्वास करना मुश्किल था. आर्यभट्ट के इस विचार की उस ज़माने में सशक्त मौजूदगी थी. लोगों के दिमाग में ये बात घर कर चुकी थी. ज़ाहिर है, कई तर्कशील और लॉजिकल लोग इस तथ्य को अपनाने से इंकार करने लगे और भारत का जीता जागता इतिहास, माइथोलॉजी में तब्दील होकर रह गया.
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प्रोफ़ेसर बी. बी. लाल के पुरातात्विक प्रमाणों और महाभारत के Double Eclipse Pair से ये आसानी से समझा जा सकता है कि महाभारत का युद्ध 827 BCE में हुआ था. सभी ग्रहों की स्थितियां जो महाभारत में दर्शाई गई थी, भी इस साल की पुष्टि करती हैं
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इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि श्री राम का जन्म 1331 BCE में हुआ था और वे 1299 BCE में अयोध्या के राजा बने थे वहीं महाभारत का युद्ध 827 BCE में लड़ा गया था.
प्रोफ़ेसर बी. बी. लाल और सुनील शेरॉन की प्रेजेंटेशन से इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
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सुनील अपनी इस थ्योरी को लेकर काफ़ी आश्वस्त हैं और देखना दिलचस्प होगा कि इस पर बाकी इतिहासकारों की क्या प्रतिक्रिया होती है.