भारत एक ऐसा देश था, जो 200 साल तक अंग्रेजों के राज के अधीन रहने के बाद भी अडिग खड़ा रहा. देश को आज़ाद कराने के लिए न जाने कितने महान व्यक्तियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी. भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में अनेक अध्याय जुड़े हैं, जो 1857 की क्रांति से लेकर जलियांवाला बाग नरसंहार, असहयोग आंदोलन से लेकर नमक सत्याग्रह तक अनेक हैं. स्वतंत्रता की इस लड़ाई में देश की महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और हंसते-हंसते अपने देश सेवा में अपना प्राण न्योछावर कर दिए. झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हज़रत महल, मैडम भीकाजी कामा, कस्तूरबा गांधी, सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, ऊषा मेहता सावित्री बाई फूले समेत कई वीरांगनाएं संघर्ष और देशभक्ति की मिसाल हैं. इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने समय-समय पर अपनी बहादुरी और साहस का प्रयोग कर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाया है और उनके साथ चली हैं. लेकिन आज हम एक ऐसी बहादुर और साहसी रानी की बात करने जा रहे हैं, जिन्होंने सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों के साथ अपनी आज़ादी के लिए युद्ध किया.
कौन थी यह रानी?
इस वीरांगना का नाम था ‘अब्बक्का रानी’ या ‘अब्बक्का महादेवी’ ये तुलुनाडू की रानी थीं और चौटा राजवंश से ताल्लुक रखती थीं. चौटा राजवंश के लोग मंदिरों का शहर ‘मूडबिद्री’ से शासन करते थे और इसकी राजधानी ‘उल्लाल’ जो एक बंदरगाह शहर था. अब्बक्का ने सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पुर्तगालियों के साथ युद्ध किया. चौटा राजवंश मातृ सत्ता की पद्धति से चलने वाला राजवंश था, इसलिए अब्बक्का के मामा, तिरुमला राय ने उन्हें उल्लाल की रानी बनाया. तिरुमला राय ने अब्बक्का को युद्ध के अलग-अलग दांव-पेंच सिखाये.
पुर्तगालियों ने उल्लाल शहर पर जीत हासिल करने के लिए कई प्रयास किए. लेकिन लगभग चार दशकों तक अब्बक्का ने उन्हें हर समय खदेड़ कर भगा दिया. अपनी बहादुरी के कारण वह ‘अभया रानी’ के नाम से विख्यात हो गर्इं. औपनिवेशक शक्तियों के विरुद्ध लड़ने वाले अल्प भारतीयों में से वो एक थीं. वह प्रथम भारतीय स्वतंत्रता सेनानी मानी जाती थीं. रानी अब्बक्का भले ही एक छोटे राज्य उल्लाल की रानी थीं, लेकिन वो एक अदम्य साहसी और देशभक्त महिला थीं. झांसी की रानी साहस का प्रतीक बन गई हैं, लेकिन उनके 300 वर्ष पहले पैदा हुई अब्बक्का को इतिहास भूल चुका है.
पुर्तगालियों के साथ उनकी साहसपूर्ण लड़ाइयों का ब्यौरा ठीक से नहीं रखा गया. लेकिन जो भी शेष है, उससे ही इस साहसी एवं तेजस्वी व्यक्तित्व का पता चलता है. स्थानीय कहानियों के अनुसार, अब्बक्का एक बहुत ही होनहार बच्ची थीं, तथा जैस-जैसे वह बड़ी होती गर्इं, एक द्रष्टा होने के सारे लक्षण उनमें दिखाई देने लगे; धनुर्विद्या तथा तलवारबाजी में उनका मुकाबला करने वाला कोई नहीं था. उनके पिताजी ने उन्हें हमेशा उत्साहित किया जिसके फलस्वरूप वो हर क्षेत्र में पारंगत होती गईं. उनका विवाह पड़ोस के बांघेर के राजा के साथ हुआ . लेकिन यह विवाह अधिक दिनों तक नहीं चला. अब्बक्का पति द्वारा दिए हीरे-जवाहरात लौटाकर घर वापस आ गर्इं.
अब्बक्का के राज्य की राजधानी उल्लाल किला अरब सागर के किनारे मंगलोर शहर से मुछ ही मीलों की दूरी पर था. वह एक ऐतिहासिक स्थान तथा एक तीर्थस्थल भी था, क्योंकि रानी ने वहां भगवान शिव के सुंदर मंदिर का निर्माण करवाया था. उस मंदिर में एक अद्वितीय शिला भी थी, जो ‘रुद्र शिला’ के नाम से जानी जाती थी. उस पर पानी की बौछार होते ही उस शिला का रंग बदलता रहता था. अब्बक्का भले ही जैनी थीं, लेकिन उनके शासन में हिंदू एवं मुसलमानों का अच्छा प्रतिनिधित्व था. उनकी सेना में सभी जाति एवं संप्रदाय के लोग, यहां तक कि मूगावीरा मच्छीमार भी सम्मिलित थे.
क्या है इनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि?
गोवा को कुचलकर उसे नियंत्रण में लेने के बाद पुर्तगालियों की आंख दक्षिण की ओर तथा सागर के किनारे पर पड़ी. उन्होंने सबसे पहले 1525 में दक्षिण कनारा के किनारे पर आक्रमण किया और मंगलोर बंदरगाह को नष्ट कर दिया. उल्लाल एक समृद्ध बंदरगाह था और अरब एवं पश्चिम के देशों के लिए मसाले के व्यापार का केंद्र था. लाभप्रद व्यापार केंद्र होने के कारण पोर्तुगीज, डच तथा ब्रिटिश उस क्षेत्र पर एवं व्यापारी मार्गों पर नियंत्रण करने के लिए एक-दूसरे से टकराते रहते थे. लेकिन वे उस क्षेत्र में अधिक अंदर तक घुस नहीं पाए, क्योंकि स्थानीय सरदारों द्वारा होने वाला प्रतिरोध मज़बूत था.
– पहला आक्रमण पुर्तगालियों ने 1525 में दक्षिण कनारा तटपर पहला आक्रमण कर मंगलोर बंदरगाह को नष्ट किया. इस घटना से रानी सतर्क हो गर्इं तथा अपने राज्य की सुरक्षा की तैयारी में जुट गर्इं.
– दूसरा आक्रमण करने पर पोर्तुगीज अब्बक्का की रणनीति से कमज़ोर पड़ गए, लेकिन फिर भी वो चाहते थे कि रानी उनके सामने झुक जाएं, उनका सम्मान करें. पर अब्बक्का ने झुकना अस्वीकार किया. 1555 में पुर्तगालियों ने एडमिरल डॉम अलवरो दा सिलवेरिया को रानी से युद्ध करने भेजा क्योंकि उन्होंने उनका सम्मान करना अस्वीकार किया था. उस युद्ध में रानी ने एक बार पुन: स्वयं को बचाया तथा आक्रमणकारियों को सफलता पूर्वक खदेड़ दिया.
– इस तरह से अब्बक्का के राज्य उल्लाल पर 6 बार पुर्तगालियों द्वारा आक्रमण किया गया, लेकिन अब्बक्का ने हर बार अपने साहस और बहादुरी का परिचय देते हुए उनको अपनी सीमा से बाहर खदेड़ दिया. ये सारे युद्ध 1525 से लेकर 1570 तक हुए बार-बार हुए. इन युद्धों में बहुत कुछ तहस-नहस भी हो गया, मंदिरों को जलाया गया, बूढ़े, जवान, बच्चे महिलाओं सब पर यातनाएं की गयीं.
1567 में पोर्तुगीज ने पांचवां आक्रमण किया, जिसमें उन्होंने वाईसराय एंटोनियो नोरान्हाने जनरल जोआओ पिक्सोटो के साथ सैनिकों का एक बेड़ा देकर उसे उल्लाल भेजा. उन्होंने उल्लालपर नियंत्रण किया तथा राजदरबार में घुस गए . लेकिन अब्बक्का रानी उनके हाथ नहीं लगीं. अब्बक्का ने एक मस्जिद में आश्रय लिया. उसी रात उसने 200 सैनिकों को इकट्ठा कर पुर्तगालियों पर आक्रमण किया. इस लड़ाई में जनरल पिक्सोटो मारा गया तथा 70 पोर्तुगीज सैनिकों को बंदी बनाया गया, कई सैनिक भाग गए . बाद में हुए आक्रमणों में रानी तथा उसके समर्थकों ने एडमिरल मस्कारेन्हस की हत्या की और पुर्तगालियों को मंगलोर किला खाली करने पर मज़बूर कर दिया.
अब्बक्का के पति ने उनसे से बदला लेने के लिए उनके विरुद्ध पुर्तगालियों के साथ हाथ मिलाया. रानी के पति की मदद से पोर्तुगीज उल्लाल पर आक्रमण करते रहे. घमासान युद्ध के बाद भी अब्बक्का रानी अपने निर्णय पर अटल थीं. 1570 में उन्होेंने अहमदनगर के बीजापुर सुलतान तथा कालिकट के साथ गठबंधन किया, जो पोर्तुगीजोंके विरुद्ध थे. झामोरीन का सरदार कुट्टी पोकर मार्कर अब्बक्का की ओर से लडा तथा पुर्तगालियों का मंगलोर का किला उध्वस्त किया किंतु वापिस आते समय पुर्तगालियों ने उसे मार दिया. पति के विश्वासघात के कारण अब्बक्का हार गर्इं, वह पकडी गर्इं तथा उन्हें कारागृह में रखा गया. लेकिन कारागृह में भी उन्होेंने विद्रोह किया तथा लड़ते-लड़ते ही अपने प्राण त्याग दिए.
पारंपारिक कहानियों के अनुसार:
वह बहुत ही लोकप्रिय रानी थीं, जिसका पता इस बात से चलता है कि वह आज भी लोक साहित्यका एक हिस्सा हैं. रानी की कहानी पीढ़ी-दर-पीढी लोकसंगीत तथा यक्षगान (जो तुलुनाडूका लोकप्रिय थिएटर है) द्वारा बार-बार दोहराई जाती है. भूटा कोला एक स्थानीय नृत्य प्रकार है, जिसमें अब्बक्का महादेवी के महान कारनामे दिखाए जाते थे. अब्बक्का सांवले रंग की, दिखने में बडी सुंदर थीं. वो हमेशा सामान्य व्यक्ति जैसे वस्त्र पहनती थीं. उन्हें अपनी प्रजा की बडी चिंता थी तथा न्याय करने लिए देर रात तक व्यस्त रहती थीं. कहा जाता है कि ‘अग्निबाण’ का उपयोग करने वाली वह अंतिम व्यक्ति थीं. जानकारी के अनुसार, रानी की दो बहादुर बेटियां थीं, जो पुर्तगालियों के विरुद्ध उनके साथ-साथ लड़ीं थीं. परंपराओं के अनुसार, मां और दोनों बेटियां एक ही मानी जाती हैं.
अब्बक्का को उनके अपने नगर उल्लाल में याद किया जाता है. हर वर्ष उनकी याद में ‘वीर रानी अब्बक्का उत्सव’ मनाया जाता है. ‘वीर रानी अब्बक्का प्रशस्ति’ पुरस्कार किसी अद्वितीय महिला को दिया जाता है. 15 जनवरी 2003 को डाक विभाग ने एक विशेष कवर जारी किया. बाजपे हवाई अड्डे को तथा एक नौसैनिक पोत को रानी का नाम देने की कई लोगों की मांग है. उल्लाल तथा बंगलुरू में रानी की कांस्य मूर्ती स्थापित की गई है. ‘कर्नाटक इतिहास अकादमी’ ने राज्य की राजधानी के ‘क्वीन्स रोड’ को ‘रानी अब्बक्का देवी रोड’ नाम देने की मांग की है.