ज़िन्दगी किसी के लिए नहीं रुकती. कोई हो या न हो, जब तक लिखा है सुबह का सूरज और रात के तारे देखने ही होंगे. मुश्किलें आती हैं, शिकायतें करने के बावजूद हमें उनसे लड़ना पड़ता है.
‘मैं अपनी पीढ़ी की उन चुनींदा महिलाओं में से थी, जिन्हें पढ़ने और यहां तक की नौकरी करने का मौका मिला. मेरी ज़िन्दगी में एक ऐसा दौर भी आया जब मेरे पिता और भाई बेरोज़गार थे और मैं Raioning Office में सीनियर इंस्पेक्टर थी. ज़ाहिर सी बात है, जब शादी करने का वक़्त आया तो मैं हिचकिचाने लगी पर मेरे माता-पिता ने मेरा ढांढस बंधाया.
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पहले दिन से मेरा सपना था कि मैं उसे अपने से ज़्यादा न भी हो सके तो कम से कम अपने जैसा सक्षम बनाऊं. वो भी काफ़ी मेहनती थी. उसने 10वीं और 12वीं दोनों में टॉप किया. बहुत ही कम उम्र से वो अपने पैरों पर खड़े होने की बातें करती और मैं उसके सभी सपने सच करना चाहती थी.
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मैंने एक मेडिकल कैंप लगवाया था, उसमें पता चला कि मुझे ब्रेस्ट कैंसर है. मुझे शॉक लगा पर मुझे पता था कि मैं ठीक हो जाऊंगी. मेरे पति डर गए थे उन्हें लग रहा था कि हमारा सफ़र ख़त्म होने वाला है. मैं उनसे कहती कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है. मुझे पता ही नहीं चला कि वो अपने जाने की बात कर रहे थे क्योंकि कुछ दिनों बाद लिवर फ़ेल होने से उनकी मृत्यु हो गई.
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81 की उम्र में मैंने उन सबको खो दिया जिनसे मैं सबसे ज़्यादा प्यार करती थी. अंदर से टूट चुकी थी. बीतते वक़्त के साथ मैंने ख़ुद को संभाला. मैंने ये जान लिया कि ज़िन्दगी या मौत पर किसी का वश नहीं चलता है. मैंने ख़ुद को समेटा और काम पर वापस लौटी. मैं अपना सारा समय ऐसे लोगों को देने लगी जिनका परिवार नहीं है, जिनके पास ज़रूरती साधन नहीं है और जिस किसी भी तरह की मदद की ज़रूरत है. मैं सीनियर सिटिज़न्स एसोशिएशन की हेड हूं और स्पेशल नीड्स वाले बच्चों के लिए स्कूल भी चलाती हूं. मुझे रोज़ अपने पति और बेटी की याद आती है. जब भी कोई मुझे उनकी हेल्प करने के लिए धन्यवाद करता है तो ऐसा लगता है मानो मेरे पति और बेटी मेरा हाथ पकड़े हों और मेरी पीठ थपथपा रहे हों. मुझे ऐसा लगता है मानो उन्हें मुझ पर गर्व है कि मैं भले ही उनकी मदद न कर पाई पर मैं अपनी क्षमता के अनुसार दूसरों की मदद कर रही हूं.’
ये कहानी पढ़कर सभी की आंखें नम हो गईं
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