भारत में खेल और खिलाड़ियों को उतनी एहमियत नहीं दी जाती. अगर दी भी जाती है तो कुछ ही खेलों को. सबसे ज़्यादा क्रिकेट. ये खेल यहां सिर्फ़ खेल नहीं देशभक्ति का मुद्दा भी है.
कई बार तो पदक लाने के बावजूद भी खिलाड़ियों को वो सम्मान नहीं मिलता, जिसके वो हक़दार हैं. देश के सफ़ल पहलवानों में से एक हैं, वीरेंद्र सिंह. वीरेंद्र ने विभिन्न प्रतियोगिताओं में देश को स्वर्ण पदक दिलाए हैं, लेकिन उनकी हालत ऐसी है कि वे अपना घर तक नहीं बनवा सकते.
दिल्ली के सदर बाज़ार में एक अखाड़े में ही बने छोटे से कमरे में रहने वाले वीरेंद्र, जूनियर कोच की नौकरी करते हैं. पर वीरेंद्र के पास अपना घर, गाड़ी कुछ भी नहीं है.
हरियाणा के झज्जर के वीरेंद्र सिंह को आस-पास के लोग ‘गूंगे पहलवान’ के नाम से जानते हैं क्योंकि न तो वो सुन सकते हैं और न ही बोल सकते हैं. वीरेंद्र ने न सिर्फ़ अपने प्रतिद्वंदियों को पटखनी दी है, बल्कि अपने हालातों से भी लड़े हैं. लेकिन सरकार को उनकी प्रतिभा दिखाई नहीं देती, शायद इसलिये क्योंकि वे ‘आम’ नहीं हैं.
वीरेंद्र ने Sign Language द्वारा ही HT से बातचीत करते हुए कहा,
‘मैं सुन नहीं सकता, ना बोल सकता हूं, पर इसका ये मतलब नहीं कि मेरी कोई सुनवाई ना हो.’
वीरेंद्र के पिता भी एक पहलवान थे और CISF के लिए काम करते थे. 10 साल की उम्र में वीरेंद्र अपने पिता के साथ दिल्ली आ गए. एक दोस्त के कहने पर उनके पिता ने उन्हें मूक और बधिरों के स्कूल में दाखिल करवाया. पढ़ाई के साथ ही वीरेंद्र अपने पिता और चाचा के साथ अभ्यास भी करने लगे.
2005 में ऑस्ट्रेलिया में हुए Deaflympics में वीरेंद्र ने पहला स्वर्ण पदक जीता. इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए उन्होंने खुद से 70,000 रुपये खर्च किए थे. पर इस जीत के बाद भी न उन्हें सरकार से सहायता मिली और न ही पहचान. कारण, उस वक्त दिव्यांग खिलाड़ियों के लिए किसी भी तरह की आर्थिक सहायता का प्रावधान नहीं था.
एक तरफ़ जहां Olympics के विजेताओं को करोड़ों रुपये नज़र किये जा रहे थे, वीरेंद्र खाली हाथ ही कुश्ती कर रहे थे.
अपने रोज़मर्रा के खर्चों के लिए वीरेंद्र गांव के दंगलों में हिस्सा लेते थे. एक जीत से 5000-20000 मिल जाते थे. इसके लिए वे हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब के दूर-दराज के गांवों तक सफ़र करते थे.
वीरेंद्र ने Sign Language द्वारा कहा,
‘अगर मैं बोल सकता तो मैं अपने जैसे खिलाड़ियों के हक़ के लिए लड़ता.’
2013 में 3 डायरेक्टर्स ने उन पर एक डॉक्युमेंट्री बनाई. इससे वीरेंद्र पर लोगों का ध्यान गया. 2015 में मूक खिलाड़ियों के लिए स्पोर्टस पॉलिसी में बदलाव किए गए. इस बदलाव के बाद भी दिव्यांगों को सामान्य खिलाड़ियों के मुकाबले बहुत कम पैसे मिलते हैं.
2016 में वीरेंद्र को अर्जुन अवॉर्ड से नवाज़ा गया लेकिन आज भी बहुत कम ही लोग उन्हें जानते होंगे.