ज़िंदगी किस्सों और कहानियों का एक ऐसा कारवां है, जिसके सफ़र में हर दिन कोई नई कहानी जुड़ जाती है, जबकि पुरानी होने के बाद यही कहानी एक सुनहरी याद बन कर रह जाती है. यादों के उसी पिटारे से आज हम एक ऐसे शख़्स की कहानी निकाल कर लाये हैं, जो ख़ुद एक बहुत बड़ा शायर था. इतना बड़ा शायर कि आने वाले कल के लिए वो ख़ुद के बारे में लिखता है:

मैं पल-दो-पल का शायर हूं, पल-दो-पल मेरी कहानी है, पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है. कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियां चुनने वाले,मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले. कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे,मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे.

इन लाइनों को लिखने वाले शायर का नाम साहिर लुधियानवी था, जिसकी ज़िंदगी खुद ही किसी किस्सागोई से कम नहीं थी. ऐसी किस्सागोई, जो राह चलते-चलते अचानक ही कहीं रुक जाता और किसी को किस्सा सुनाने लग जाता था. उनके किस्सों का आलम ये था कि जब वो दुनिया से रुख़्सत हुए, तो भी एक किस्सा छोड़ गए. इस किस्से के किरादरों में से एक किरदार मशहूर शायर जावेद अख़्तर भी थे, जो इसे साझा करते हुए ख़ुद भी भावुक हो जाते हैं.

उधार के 200 रुपये

ये किस्सा उन दिनों का है, जब जावेद साहब फ़िल्मों में काम करने के उद्देश्य से मुंबई आये, पर कई दिनों तक काम की तलाश में इधर-उधर भटकने के बावजूद वो इसमें नाकाम रहे थे. ये वो दौर था, जब साहिर बॉलीवुड में हर दिन कामयाबी के नई कहानी लिख रहे थे और लगातार कई हिट गानों को लिख चुके थे. मुंबई आने से पहले ही शायरी अदब की वजह से साहिर और जावेद के बीच अच्छी-ख़ासी जान-पहचान हो चुकी थी. इस जान-पहचान को बढ़ाने में जावेद के पिता जां निसार अख़्तर के नाम का भी योगदान था, जो ख़ुद भी एक बड़े शायर थे, पर स्वाभिमान की लड़ाई में बाप-बेटे के बीच ये दूरियां वर्षों पहले ही बढ़ चुकी थी. ऐसे में जावेद अख़्तर ने पिता के बजाय साहिर लुधियानवी से मदद लेने का फ़ैसला लिया. काफ़ी कश्मकश के बाद जावेद साहब ने साहिर लुधियानवी को फ़ोन किया और उनसे मिलने का वक़्त मांगा.

साहिर और जावेद के बीच दोस्ती का रिश्ता कुछ ऐसा बढ़ चुका था कि जावेद को देखते ही साहिर उनके चेहरे की उदासी को भांप गए थे. जावेद को देखते ही साहिर साहब ने कहा:

एक Monologue इस किस्से को याद करते हुए जावेद अख़्तर, साहिर साहब के बारे में बताते हैं कि ‘साहिर साहब की एक अजीब आदत थी. वो जब भी परेशान होते, तो अपनी जेब से कंघी निकाल कर बालों को ठीक करने लगते थे. उस वक्त भी उन्होंने वही किया, थोड़ी देर तक सोचने के बाद अपने जाने-पहचाने अंदाज़ में उन्होंने जावेद से कहा, ‘ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है?’

इसके बाद पास ही रखी एक मेज़ की तरफ इशारा करते हुए साहिर ने कहा:

जावेद जब मेज़ के पास गए, तो उन्होंने देखा कि वहां पर दो सौ रुपये रखे हुए थे. जावेद कहते हैं कि ‘साहिर चाहते, तो ये पैसे वो खुद उनके हाथ पर रख सकते थे, लेकिन साहिर को लगा कि कहीं मुझे इस बात का बुरा न लग जाए. ये उस शख़्स का मयार था कि पैसे देते वक़्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था.’

धीरे-धीरे जावेद साहब को भी काम मिलने लगा. सलीम खान के साथ मिल कर वो ‘त्रिशूल’, ‘दीवार’, ‘शोले’ और ‘काला पत्थर’ जैसी फ़िल्मों की कहानी लिख रहे थे. इन्हीं फ़िल्मों के लिए साहिर साहब भी गाने लिख रहे थे, जिसकी वजह से दोनों का उठना-बैठना काफ़ी बढ़ गया था.

बैठकों के दौरान अकसर जावेद शरारत में साहिर से कहते:

एक दिन जावेद साहब के फ़ोन आया कि साहिर नहीं रहे. हड़बड़ाहट में जावेद साहब वहां पहुंचे. साहिर के घर फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े कई लोग मौजूद थे. आख़िरकार सुबह साहिर साहब का जनाज़ा चल पड़ा और जुहु क़ब्रिस्तान में उन्हें दफ़नाने का इंतज़ाम किया गया. साहिर साहब को सुपुर्द-ऐ-ख़ाक कर दिया, लोग भी जाने लगे जावेद अख़्तर उठे और अपनी कार में बैठने के लिए चल पड़े. वो अभी कार में बैठे ही थे कि उन्हें किसी ने उन्हें आवाज़ दी और हड़बड़ाहट में कहा कि:

जावेद साहब ने हां-हां कहते हुए पूछा कि ‘कितने रुपए देने हैं? इस पर उस शख़्स ने कहा कि दो सौ रुपए.’ पैसे देने के बाद जावेद साहब कार में बैठ कर घर के लिए चल लिए. कार में बैठे-बैठे अचानक ही जावेद साहब को याद आया कि उन्हें साहिर साहब के दो सौ रुपये देने थे, जो कर्ज़ था.