साल 1946 में जब पूरा देश आज़ादी की लड़ाई के चरम पर था, 17-18 साल की अरुणाबेन ने उस वक्त कॉलेज की पढ़ाई शुरू ही की थी. पूरा देश ब्रिटिश राज से आज़ादी के बारे में सोच रहा था, लेकिन अरुणाबेन को यक़ीन था कि, अगर इस देश की लड़कियां आत्मनिर्भर न हो सकीं तो ये आज़ादी सिर्फ़ एक भ्रम होगा.  

अरुणाबेन की इसी नेक सोच ने साल 1946 में विकास विद्यालय को जन्म दिया. एक ऐसी संस्था, जिसने समाजिक एवं आर्थिक रूप से लड़ रही महिलाओं और बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए काम करना शुरू किया. इस संस्थान का सफ़र महज़ 40 लोगों के साथ गुजरात के वाधवान से शुरू हुआ था. आज यह पूरे गुजरात में फ़ैला हुआ है और अब तक 80,000 महिलाओं की ज़िन्दगी बदल चुका है.

साल 2005 में एक अवॉर्ड फंक्शन में अपने सफ़र के बारे में बात करते हुए अरुणाबेन ने कहा, “मैंने जब सोशल वर्क शुरू किया था, तब मैं कॉलेज से ग्रेजुएट होकर ही निकली थी. उस समय लोगों को ये यक़ीन दिलाना बहुत मुश्किल था कि एक महिला एक स्वतंत्र व्यक्ति है. आज के समय में यह थोड़ा आसान हो गया है और महिलाएं हर क्षेत्र में हिस्सा ले रही हैं. हालांकि समाज में महिलाओं की स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ है.” 

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अरुणाबेन का भारत की महिलाओं के लिए एक बेहतर और सुरक्षित जगह बनाने का सफ़र तब शुरू हुआ, जब उन्होंने सौराष्ट्र में मानव तस्वकरी के बारे में जाना.

उन्होंने उस समय की कुछ बेहद ज़रूरी समस्याओं के बारे में रिसर्च करना शुरू कर दिया था, जिसमें महिलाओं के ख़िलाफ़ क्रूरता और छुआछूत जैसे मुद्दे अहम थे. विकास विद्यालय की स्थापना इन्हीं मामलों को शिक्षा और सशक्तिकरण के माध्यम से, जड़ से उखाड़ने के लिए की गई थी. 

विकास विद्यालय के तहत, अरुणाबेन ने एक प्राथमिक स्कूल, लड़कियों के लिए दो हाई स्कूल, एक पॉलिटेक्निक कॉलेज, एक हेंडीक्राफ्ट कॉलेज, साथ ही साथ टीचरों की ट्रेनिंग के लिए एक कॉलेज खोला, जो कि बुनाई, सिलाई और कढ़ाई जैसी अन्य चीज़ों पर भी ध्यान देता है.

इतना ही नहीं उन्होंने एक ऐसा केंद्र भी शुरू किया था, जिसमें महिलाओं को अंबर और बारडोली चरखा चलाने के लिए प्रशिक्षित किया गया.

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वह हर तरह से महिलाओं को मज़बूत और आत्मनिर्भर बनाना चाहती थीं. इसके लिए उन्होंने एक ऐसी जगह की नींव रखी जो नौकरी, विवाह और यहां तक कि गोद लेने के ज़रिए महिलाओं को छत, स्वास्थ्य, शिक्षा और पुर्नवास प्रदान करती थी.  

ये जगह शादीशुदा परिवारों और घरों में होने वाली समस्याओं के बारे में महिलाओं की काउंसलिंग भी करता था. यहां कोशिश होती थी कि इन समस्याओं के ऐसे समाधान खोजे जाएं जो व्यवहारिक हों. अब तक 2,600 महिलाओं को इस जगह से फ़ायदा हुआ है. उन्होंने एक कॉस्मोपॉलिटन हॉस्टल भी खोला था, जिससे अब तक 800 लड़कियों को फ़ायदा हुआ है.

केवल महिलाओं के लिए ही नहीं, अरुणाबेन ने विकलांगों के लिए भी कई स्कूल खोले. वह हमेशा से शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा को मजबूत बनानी चाहती थीं. इसके लिए उन्होंने एक orthopaedic अस्पताल खोला. मानसिक रूप से बीमार लोगों के लिए भी एक अस्पताल खोला और एक hygiene सेंटर भी. 

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अपनी एक पब्लिक स्पीच में उन्होंने बताया था कि जानकीदेवी बजाज ने अरुणाबेन का बहुत साथ दिया हौसला बढ़ाया. उनके निरंतर प्रोत्साहन ने ही उन्हें बेहतर करने के लिए प्रेरित किया. जानकीदेवी के प्रयासों की बदौलत, अरुणाबेन को 2005 में जमनालाल बजाज अवार्ड फॉर डेवलपमेंट एंड वेलफेयर ऑफ़ वुमन एंड चिल्ड्रन से सम्मानित किया गया.

इसके अतिरिक्त उन्हें बाल कल्याण के क्षेत्र में 1981 में राज्य सरकार पुरस्कार, 1989 में महिला सुरक्षा पुरस्कार और 2002 में श्री राजीव गांधी मानव सेवा पुरस्कार भी मिला. दुर्भाग्य से 18 फरवरी 2007 को, 83 वर्ष की आयु में अरुणाबेन ने अपनी अंतिम सांस ली. उन्होंने देश के लिए समाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में एक बहुत बड़ी छाप छोड़ी थी.

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आज विकास विद्यालय को गुजरात सरकार द्वारा सौराष्ट्र बाल अधिनियम के प्रावधानों के तहत बच्चों को सुरक्षित अभिरक्षा प्रदान करने वाला एक ‘फिट पर्सन इंस्टीट्यूशन’ माना जाता है. 

इन वर्षों में उनके द्वारा शुरू की गई कई संस्थाओं ने सैकड़ों लोगों की मदद की है. अपने काम के जरिए एक प्रमुख समाजिक कार्यकर्ता के रूप में वह हमेशा अमर रहेंगी.