लखनऊ के कबाब परांठे हों या फिर कुलचे-निहारी, ये भारत ही नहीं पूरी दुनिया में मशहूर हैं. लेकिन नवाबों के शहर की एक और चीज़ है, जिसके दीवानों की कोई कमी नहीं है. वो है ‘शीरमाल’. नाम तो सुना ही होगा.

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पुराने लखनऊ में आप कई जगहों पर ये बिकती मिल जाएगी. लोग इसे कोरमे और निहारी के साथ खाना बेहद पसंद करते हैं. कबाब के साथ भी शीरमाल खाने वालों की कोई कमी नहीं है. वैसे तो शहर में शीरमाल कई लोग बनाते हैं, लेकिन ‘अली हुसैन शीरमाल’ का कोई तोड़ नहीं है.

क्या होती है शीरमाल?

शीरमाल का मतलब है, शीर यानि कि ‘दूध’ और ‘माल’ का मोटा-माटी मतलब ‘घी’ या ‘समृद्ध भोजन’ से है. एक दौर में ये अभिजात्य वर्ग का भोजन हुआ करती थी, जिसकी शुरुआत नवाबी दौर में हुई थी. 

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यूं तो ये एक मीठी नान ही है, जिसे मैदा और ख़मीर के साथ तंदूर या ओवन में पकाया जाता है. हालांकि, एक बड़ा अंतर ये है कि शीरमाल को गर्म पानी के बजाय दूध के साथ चीनी डालकर मीठा किया जाता है. इसके साथ ही केसर और इलायती मिलाई जाती है, जिससे इसका स्वाद कई गुना बढ़ जाता है. 

कैसे हुई शुरुआत?

कहा जता है कि नसीरुद्दीन हैदर के समय में महमूद नाम के एक शख़्स का फ़िरंगी महल के पास एक छोटा से रेस्तरां टाइप था. यहां मुसाफ़िर खाने के लिए रूका करते थे. ये रेस्तरां निहारी के लिए हर ओर फ़ेमस था. इन्होंने ही लखनवी शीरमाल की शुरुआत की थी. बाद में महमूद की इस दुकान में शेफ़ अली हुसैन ने 1830 में अपनी एक छोटी से दुकान खोल ली.

वो वक़्त था और आज का वक़्त है अली हुसैन की शीरमाल ने लखनऊ में एक ख़ास जगह बना ली. वर्तमान में इसका स्वामित्व मोहम्मद उमर और जुनैद के पास है जो इस पेशे में 6वीं पीढ़ी के हैं. दिलचस्प बात ये है कि यहां काम करने वाले लोग भी पीढ़ियों से इस दुकान से जुड़े हैं. यही वजह है कि आज भी यहां मिलने वाली शीरमाल का स्वाद बाकी जगह की शीरमाल से अलग और बेहतरीन बना हुआ है. 

लखनऊ की जिस गली में ये दुकान है उसे ‘शीरमाल वली गली’ के नाम से जाना जाता है. शीरमाल के अलावा यहां आपको बेहतरीन बाकरख़ानीन, गऊ ज़बान और अलग-अलग तरह की नान ख़ाने को मिलेंगी.