बचपन में दिवाली (Diwali) के आते ही हम पटाखों की तरह फटने को बेताब हो जाते थे. दिमाग़ में कुछ न कुछ ख़ुरपेच सूझती ही रहती थी. उस वक़्त ये ख़ुशियांं बस एक दिन की बात नही थीं. हफ़्ते भर पहले से उधम-चौकड़ी शुरू कर देते थे. आसमान की सारी रौशनी हमारी आंखों में देखी जा सकती थी. मिठाईयां तो ऐसे चापते थे कि कमर कुछ दिनों में ही चौराहा नज़र आती थी. जेब खाली थी, मगर हथेली दुनियाभर की शरारतों से भरी थी.
बचपन की दिवाली में ऐसी बहुत छोटी-छोटी सी बातें थीं, जो हमें छोटी उम्र में बड़ी ख़ुशी देती थीं. इस दिवाली वो सब बातें आप संग शेयर कर रहा हूं. क्योंकि बचपन मेरा और तुम्हारा नहीं होता, वो हमेशा हमारा होता है.
1. जली चटाई से जब जलाने को मिर्चे मिल जाएं
मोहल्ले में दो-चार अमीर रंगबाज़ ज़रूर होते हैं, जिनके बीच कॉम्पटीशन रहता है. कौन-कितनी लंबी चटाई जलाएगा. मगर हम बच्चों में कॉम्पटीशन होता था कि कौन जली चटाई में से ज़्यादा जलाने को मिर्चे खोज लेगा. चटचटाहट के बीच हम पूरी नज़र बनाए रखते थे. जैसे ही मामला शांत, तुरंत टूट पड़ते थे. ऐसा नहीं है कि हमारे घरों में पटाखे नहीं थे, मगर रात के अंधेरे में अपनी-अपनी रौशनी की तलाश करने का एक अलग ही लुत्फ़ था.
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2. फुलझड़ी के साथ अनार-चकरघिन्नी भी मिल जाए
हमें ग़ैर-बराबरी घर से ही सिखाई जाती है. पापा-चाचा सब बड़े-बड़े बम, रॉकेट ख़ुद दगाते थे और हमें फुलझड़ी थमाकर किनारे कर देते थे. उस वक़्त मोल्लले के शेरू-मोती और हमारी शक्ल में अंतर ढूंढ पाना मुश्किल हो जाता था. मगर उसमें भी जब दुई-चार अनार-चकरघिन्नी ज़िद कर हासिल हो जाती थी, तो लगता था मानो दुनिया ही दगा देंगे आज.
3. लहसुन बम का जुगाड़ हो जाए
कालाबाज़ारी का ज्ञान बहुत कम उम्र में ही हमें हो गया था. एक तो जेब में पैसे नहीं, ऊपर से सरकार के बैन ने बचपन का चैन अलग छीन लिया. बमुश्किल 30-50 रुपया अरेंज कर पाते थे, वो भी लहसुन बम ख़रीदने को कम पड़ जाते थे.क्योंकि जो बम दो रुपये का आता था, सरकार की लकड़ी करने के बाद वही 10 रुपया का लेना पड़ता था. ऐसे में अगर कहीं सस्ते दाम पर जुगाड़ हो जाए, फिर तो ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहता था.
4. घर पर जब हमें भी ताश खेलने का मौक़ा मिल जाए
जब घर पर चाची-मामी से लेकर 80 साल की दादी तक, गुलाम-बादशाह करें. मम्मी, पापा के चार रुपये जीतकर ख़ुश हों और चाची, बुआ के तीन पर उधारी हो जाएं. ऐसे में बस आप इस स्वर्गीय सुख से वंचित रह जाएं, तो बुरा लगना स्वाभाविक है. हालांकि, कभी-कभी इस अमृतपान का सुख हमें भी मिल जाता था, जब हम भी महफ़िल में समेट लिए जाते थे. अंजाम, जो बची अठन्नी-चवन्नी थी, वो भी न्यौछावर हो जाती थी.
5. छत पर पतंग उड़ाने की परमिशन मिल जाए
एक तो पता नहीं क्यों घर वालों को अपना बच्चा सबसे मूर्ख और बदक़िस्मत नज़र आता है. पूरी दुनिया छत पर पतंग उड़ाए, तो कुछ नहीं. मगर हम छत पर चढ़ भी गए, तो बस घरवालों के ख़्वाब में हम दुमंज़िला से नीचे गिरते नज़र आते. कितनी बार हमारी चरखी और पतंगे मम्मी के कर-कमलोंं का शिकार हो चुकी हैं.ऐसे में जब ख़ुद माता जी परमिशन दे देती थीं, फिर तो मौज की कोई सीमा ही नहीं रहती थी.
6. पिछले साल की लाइट्स जब सही-सलामत मिल जाए
ये हर दिवाली का बवाल है. आजकल तो चाइना गो-बैक चल रहा, मगर उस वक़्त ऐसा नहीं था. चाइनीज़ लाइट का जलवा शुरू हो गया था. मगर बात वही है कि माल चाइना का, कितना ही दिन चलेगा. हम तो बाकायदा लपेट-लुपूट कर ही रखते थे. ऐसे में अगर पिछले साल की लाइट्स जब सही-सलामत मिल जाए, तो ये किसी चमत्कार से कम नहीं होता था.
7. दिवाली के अगले दिन भी जब पटाखे बचे रह जाएं
दिवाली पर पटाखों का स्टॉक तो अपने पास वैसे ही कम रहता था. ऐसे में ज़्यादा टाइम हम दूसरों के पटाखे छुड़ाकर ही मौज काटते थे. वैसे भी कोई फूलझड़ी जलाकर कितनी मौज प्राप्त कर सकता है. मगर वही फूलझड़ी और अनार जब अगले दिन भी बचे रह जाएं, तो उसके आगे कुबेर का ख़ज़ाना भी फीका पड़ जाता था. तब पूरा मोहल्ला ग़रीब और हम अंबानी के भी बाप नज़र आते थे.
ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं, जिनका शायद आज हमारे लिए कोई मतलब नहीं है. मगर बचपन की ओर जब मुंह करते हैं, तो इन्हें यादकर चेहरा अपने आप मुस्कुराहट से भर जाता है.