दिल्ली से कुछ 500 किलोमीटर दूर, हिमाचल प्रदेश का एक छोटा सा गांव. उस गांव से 15 किलोमीटर ट्रेक करने पर एक और गांव है, बस के झटकों के बाद इन पहाड़ी रास्तों पर चलना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन जब हरियाली आपसे बात करने लगे और ठंडी हवा आपको रास्ता दिखाने लगे, तो थकान भी रास्ता बदल लेती है.
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आप यही सोच रहे होंगे कि इसमें खास क्या है? ये इस लेख में क्यों लिखा गया है. आपकी बेसब्री का जवाब अगली कुछ पंक्तियों में मिल जाएगा. ये सफ़र दिल्ली से शुरू नहीं हुआ था. ये शुरू हुआ था, दिल्ली के एक कॉलेज की कैंटीन से. सूरज ढल चुका है, कैंटीन में लाइट नहीं है. अंधेरा हो रहा है पर सबके चेहरे दिख रहे हैं. ये मोबाइल की रौशनी थी जो सबके चेहरे पर पड़ रही थी. यहां किनारे बैठा एक व्यक्ति कुछ सोच रहा था. जितनी देर में ये लड़का अपना सोचना विचारना ख़त्म करता है, हम आपको एक घर में लेकर चलते हैं. ये घर जो ईद के मौके पर गुलज़ार हो उठा है. आज पूरा परिवार इस खुशी के मौके पर इकट्ठा हुआ है. दूसरे शहर में नौकरी करने वाला बेटा खास ईद के मौके पर घर आया हुआ है. पूरा परिवार एक कमरे में बैठा है और अपने अपने मोबाइल में देख रहा है.
इस इंटरनेट ने इस परिवार को दुनिया से तो जोड़ दिया पर अपनों से थोड़ा दूर कर दिया. वो कॉलेज की कैंटीन में बैठा लड़का और इस घर में दूसरे शहर से आए बेटे का नाम Zabeeh Afaque है और इस सफ़र की शुरुआत इसी पल से हो चुकी है.
इस 500 किलोमीटर और 72 घंटों के सफ़र में खास यही था कि इसमें इंटरनेट नहीं था.
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आज के वक़्त में जहां इंटरनेट के बिना व्यक्ति की सांसें थम जाती हैं, ज़बीह ने तय किया एक यात्रा ऐसी हो जिसमें इंटरनेट न हो. ज़बीह ने सोशल मीडिया पर Your Trip Ends Here नाम से अपना आइडिया लोगों को बताया और साथ चलने को कहा. ज़बीह को सोशल मीडिया पर काफ़ी लोगों का साथ मिला पर अंत में सिर्फ़ एक व्यक्ति, अयान साथ आया.
यात्रा की शुरुआत दिल्ली से हुई, बस स्टार्ट हुई और फ़ोन बंद हो गए. कुछ देर में ज़बीह और अयान को एहसास हो गया कि उन्हें इंटरनेट की ज़रूरत नहीं बल्कि तलब थी. ये सुनने में जितना आसान लग रहा था, उतना था नहीं. लेकिन इंटरनेट के बिना इन्हें जो अुनभव मिला वो गूगल पर सर्च करने पर भी नहीं मिलता.
इंटरनेट से दूर होने की देर थी और दोनों को हर शख़्स में एक कहानी दिखने लगी. बगल वाली सीट पर बैठे व्यक्ति की कहानी Instagram Stories से बेहतर थीं.
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यहां Whatsapp के अलावा एक ग्रुप बन रहा था, जो आपस में बात करता था, यहां दिखावटी इमोजी नहीं थे, लोगों के चेहरे की मुस्कुराहट और आपकी बातों में उनकी दिलचस्पी साफ़ पता लग रही थी. कुछ ही देर में बस भुन्तर पहुंची, अब अगली मंज़िल थी बरछैनी.
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कौन सा रास्ता सही रहेगा, कौन सा नहीं ये तय करने के लिए गूगल मैप नहीं था इनके पास.
ऐसे में लोकल बस ही आसरा थी. अनुभव दिलचस्प हो रहा था, क्योंकि काफ़ी देर से आॅफिस का कोई फ़ोन नहीं बजा था, Whatsapp पर साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने वाला कोई मेसेज नहीं आया था और तो और रास्ते में कुछ नए दोस्त भी बन रहे थे, जिन्हें आपसे बात करके अच्छा लगा रहा था.
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दिन बीता कलगा गांव में कुछ नए चेहरों के साथ, जिन पर फ़िल्टर नहीं था और कुछ स्वादिष्ट देसी खाने के साथ जिसका चाह कर भी आप Check In नहीं कर सकते थे. लेकिन यहां खा कर आराम करने का प्लान नहीं था.
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दोनो के कदम बढ़े जंगल की ओर और वो हुआ जो इन्होंने सोचा नहीं था. दोनो रास्ता भटक चुके थे. गूगल मैप का सहारा ले नहीं सकते थे, ऐसे में साथ सिर्फ़ अपनी इंद्रियों का था. शायद गूगल होता तो ये भटकते भटकते Lost & Found Cafe तक न पहुंचते.
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यहां नज़ारा कुछ और था. जंगल के बीच कुछ मोमबत्ती, मशाल की रौशनी में किसी के गाने और गिटार बजाने की आवाज़ सुनाई दे रही है. ये कुछ लोगों का झुंड था जो सुकून की तलाश में शहर से दूर यहां कला को महसूस कर रहा था.
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अनुभव दिलचस्प हो रहा था, क्योंकि अब इसमें म्यूज़िक, डांस, कॉफ़ी और कुछ और नए दोस्त जुड़ चुके थे. अगली मंज़िल थी, खीर गंगा, इस Lost & Found Cafe से करीब 12 किलोमीटर दूर.
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सोचिए आपको 12 किलोमीटर पैदल किसी अंजान जगह जाना है, तो आप क्या करेंगे? किसी से पूछेंगे या इंटरनेट पर रास्ता देखेंगे? लेकिन यहां एक और दिल छू लेने वाला वाक्या हुआ. ट्रेक का रास्ता थोड़ा कन्फ़्यूज़िंग था, ऐसे में इन दोनों की मदद की एक कुत्ते ने.
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ये कुत्ता जिसका इन्होंने नाम शेरू रखा था, वो कुछ Parle G खा कर गूगल मैप बन गया और दोनों को खीर गंगा तक ले गया. कुत्ता गूगल से ज़्यादा अनुभवी था क्योंकि उसे पता था कि कौन सा रास्ता फिसलने वाला है और कौन सा नहीं. कुछ 6 घंटों में दो से तीन हो चुके ये लोग तस्वीरों को कैद करते हुए ये लोग खीर गंगा पहुंच गए.
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गर्म पानी की झील में नहा कर शरीर रीसेट हो गया. रात बिताई गई तारों के नीचे टेंट में, जिसके बाहर शेरू पहरेदार बना सोता रहा.
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सुबह हुई और नींद अलार्म से नहीं बल्कि चिड़ियों की चहचहाहट से खुली.
आंखों में पहली रौशनी चमकते सूरज की पड़ी न कि मोबाइल की. अब वक़्त वापस लौटने का हो चुका था. फिर उन्हीं रास्तों पर बैक गेयर लग गया और खीर गंगा से कलगा गांव, वहां से बरछैनी, वहां से कसोल और फिर भुन्तर और अंत में बस से दिल्ली.
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72 घंटे बाद फ़ोन खोलने का अनुभव भी अनोखा था. मेसेज जैसे कोई ए.के.47 से फायरिंग कर रहा हो, कुछ सौ मिस्ड कॉल और फेसबुक पर कई नोटिफ़िकेशन. इस डिजिटल दुनिया ने इन 72 घंटों में सिर्फ़ एक दूसरे को टैग किया, शेयर किया और कमेंट किया. इन्होंने वो अनुभव नहीं लिया जो शेरू के साथ मिला, चाय की टपरी वाले की कहानी सुनते हुए मिला, वो जंगल के बीच गाना गाते हुए लोगों के साथ गुनगुनाते हुए मिला.
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Photos By- Zabeeh Afaque