पूरी दुनिया में हर साल लगभग 5 मिलियन टन तुअर यानी अरहर की दाल खाई जाती है. इसका 63 फ़ीसदी हिस्सा भारत में पैदा होता है. ये दाल हम भारतीयों की पहली पसंद बन गई है. फिर चाहे बात पंजाब की दाल फ़्राई, तमिलनाडु का सांभर, महाराष्ट्र के वरन-भात और यूपी-बिहार की तीखी अमचूर दाल की क्यों न हो.
सदियों से हमारे भोजन का हिस्सा रही तुअर दाल महारानी जोधाबाई को भी ख़ूब पसंद थी. आइए आज मिलकर इस तुअर दाल के इतिहास को डिकोड करते हैं.
तुअर दाल की खोज 14 शताब्दी में हुई थी. पुरातत्व विभाग को दक्कन के पठार(केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा) में इसके सदियों पुराने साक्ष्य मिले थे. इन इलाकों में इसकी खेती हुआ करती थी. यहां के व्यापारियों के साथ ये भारत के उत्तरी इलाकों तक पहुंच गई. दिल्ली और राजस्थान के लोगों ने इसे दिल से अपना लिया था. राजस्थान की पहचान बन चुका दाल-बाटी-चूरमा इसी दाल से बनता है.
इस तरह ये एक क्षेत्र से दूसरे, वहां से कई अन्य साम्राज्यों में होते हुए पूरे देश में फैल गई. इतिहास कारों का मानना है कि महारानी जोधाबाई भी इसे बहुत पसंद करती थीं. उनकी शाही रसोई में जो पंचमेल दाल बनती थी उसमें तुअर की दाल भी मिलाई जाती थी.
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार, आज से 400 साल पहले जब वो अकबर से शादी कर मुग़ल साम्राज्ञी बनी थीं, तब वो अपने साथ राजपूतों के कई शाकाहारी व्यंजनों को बनाने की विधि लेकर गई थीं. उनमें तुअर दाल भी थी, जिसे बाद में मुग़ल बादशाह की शाही रसोई में भी पकाया जाने लगा था.
इसके बाद जब यूरोपीय व्यापारी भारत के तटों पर मसालों की खोज में पहुंचे तो वो मसालों के साथ तुअर दाल को भी अपने साथ ले गए. अंग्रेज़ों ने इसे Pigeon Pea नाम दिया था. क्योंकि वो इसे कबूतरों को खिलाया करते थे. एक और दिलचस्प क़िस्सा तुअर दाल से जुड़ा है.
17वीं सदी में लेटिन शब्द Lentils की उत्पत्ति Lens Culinaris से हुई थी. Lens Culinaris भी एक प्रकार की दाल है, जो तुअर दाल से काफ़ी मिलती जुलती है. चूंकि इसे शाही रसोईयों में भी बनाया जाता था इसलिए इसे शाही अनाज का भी दर्जा दिया गया है.
शाही घराने से आम लोगों तक पहुंची तुअर दाल आज देश के लगभग हर घर में बनाई जाती है. इसने जिस तरह से आम लोगों के दिलों में जगह बनाई है वो काबिल-ऐ-तारीफ़ है.
अब जब आप इसका इतिहास जान ही गए हैं, तो आज रात को डिनर में तुअर दाल बनाकर इसे ट्र्रीब्यूट देना मत भूलना.
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