निहारी शब्द सुनते ही चारबाग या फिर जामा मस्जिद की उन गलियों की याद आ जाती है, जहां सुबह-सुबह ही बर्तनों में पकते इसके शोरबे की महक की तरफ़ लोग खींचे चले जाते हैं. ये महक ऐसी होती है कि इसके आने के बाद जिसे भूख न भी लगी हो तो उसे भी भूख लग जाती है. निहारी सुबह-सुबह खाए जाने वाला नाश्ता है. इसके शौकीन इसे चटखारे मार कर खाते हैं. लखनऊ के लोगों में तो ये पार्टी डिश के नाम से मशहूर है.

चलिए जानते हैं नॉनवेज़ लवर्स की पहली पसंद बन चुकी निहारी के दिलचस्प इतिहास के बारे में.

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निहारी पहली बार किसने बनाई इसे लेकर भी दो मत हैं. कुछ लोग मानते हैं कि ये एक अवधी भोजन है, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि इसे मुग़ल अपने साथ लेकर आए थे. पहली के अनुसार, निहारी को तब बनाया गया था जब अवध में अकाल पड़ा था. उस समय नवाब आसफउद्दौला ने लोगों को रोज़गार देने के लिए इमामबाड़े बनवाए. 

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तब सुबह-सुबह उठकर काम करने वाले मज़दूरों को निहारी खिलाई जाती थी. कहते हैं कि वर्किंग क्लास और सिपाहियों को ध्यान में रखकर ही निहारी बनाई गई थी. इसे खाने से वो पूरे दिन उर्ज़ावान रहते थे.

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वहीं दूसरी कहानी के अनुसार, इसे मुग़लों से जोड़ा जाता है. निहारी शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द नाहर से हुई है, जिसका मतलब है सुबह. कहते हैं कि निहारी को मुग़ल अपने साथ लेकर आए थे. ये वो नाश्ता है जिसे मुग़ल बादशाह सुबह की नमाज पढ़ने के बाद किया करते थे.

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इसके बाद निहारी को मुग़ल फ़ौज के सिपाहियों के लिए भी बनाई जाने लगी. क्योंकि इसमें ऊर्जा बढ़ाने की ख़ासियत थी. इस तरह ये महलों से निकल कर आम लोगों की भी ख़ास बन गई. भारत ही नहीं पाकिस्तान में भी नल्ली निहारी के शौकीनों की कोई कमी नहीं. बंटवारे के साथ ही ये डिश भी वहां तक पहुंच गई. इसके अलावा बांग्लादेश में निहारी बड़े ही चाव से खाई जाती है.

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ख़ैर निहारी पहले किसी ने भी बनाई हो, लेकिन खमीर की रोटी के साथ निहारी खाकर लोगों का दिन बन जाता है. लखनऊ का चौक हो या फिर दिल्ली की जामा मस्जिद वहां पर तो रोज़ों में इसके ज़रिये ही शाम के वक़्त रोज़ा खोलने की रवायत सी बन गई है.

अगर आप भी नॉन-वेज लवर हैं, तो एक बार निहारी को टेस्ट करके देखिए, आप भी इसके दिवाने हो जाएंगे.

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