कितना अज़ीब है न आज ये जो पल हम जी रहे हैं, भले अच्छा हो या बुरा आने वाले समय में भी हमारे साथ रहेगा, एक ‘याद’ बन कर. इसलिए शायद हम अक्सर लोगों को कहते सुनते हैं कि हम यादें बना रहे हैं.   

रात के 2 बजे हैं सारी दुनिया सो रही हैं. हम बिस्तर पर फैले हुए अपनी यादों मे खोये हुए हैं. ये यादे या तो हमें इस वक़्त रुला रही होती हैं या हमें मन ही मन हंसा रही होती हैं. 

कई बार अक्सर ऐसा होता है कि जब भी हम पुरानी बातें याद करते हैं तो मन अचानक से ख़ुश हो जाता है क्योंकि हम पुराने लम्हों को एक तरह से फिर से महसूस कर रहे होते हैं. और कई बार ऐसा भी होता है कि यही बातें हमे उदास कर देती हैं. हमारे मन को विचलित कर देती हैं. 

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पर क्या आपने कभी सोचा है कि ये यादें कैसे खेलती हैं हमारे दिमाग़ से? 

इंसानी दिमाग किसी कंप्यूटर की ही तरह काम करता है. यादों को जमा करने के लिए हार्ड डिस्क का काम करता है हिपोकैम्पस. यह यादें अच्छी हैं या बुरी इसे समझने और डीकोड करने का काम होता है एमिग्डाला में. हिपोकैम्पस और एमिग्डाला के आपसी संपर्क से ही अच्छे-बुरे एहसास होते हैं. 

वैज्ञानिकों ने पाया कि दिमाग़ के इन दोनों हिस्सों के बीच का संबंध काफ़ी ज्यादा लचीला है. इस संपर्क में ही फेर बदल कर यादों के साथ छेड़ छाड़ की जा सकती है. 

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कई बार ऐसा भी होता है कि जैसे-जैसे वक़्त बीतता जाता है, वैसे-वैसे हमें लगता है कि कुछ घटनाएं अभी ही तो हुई हैं. वहीं कुछ घटनाएं ताज़ा होने के बाद भी कई बार लगता है कि ये बात हुए तो अर्सा गुज़र गया. 

इसे मनोवैज्ञानिक टेलिस्कोपिंग कहते हैं. असल में आपकी ज़हनी टाइमलाइन अक्सर मुड़ी-तुड़ी होती है. इसी वजह से कई बार पुरानी घटनाओं को हम हालिया समझ लेते हैं, जबकि हाल में हुई घटनाओं के बारे में ये सोचते हैं कि ये तो पुरानी बात है. 

यादें हमारे दिमाग से बेहद ही चालाकी से खेल जाती हैं. इसलिए कई रिसर्चस ये भी मानते हैं की हमें अपनी यादाश पर ज़्यादा भरोसा भी नहीं करना चाहिए क्योंकि अक्सर हमारी यादें भी वही दिखती हैं जो हम देखना चाहते हैं. 

ख़ैर, यादें कैसी भी हों वो इंसानी मन पर अधिकतर हावी ही होती हैं इसलिए बेहद ज़रूरी है कि आप उन्हें ख़ुद से खेलने न दें.