जब भी हम अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलने की कोशिश करते हैं या कुछ नया करने जा रहे होते हैं तो उस समय एक डर सा लगने लगता है. वो डर क्या है? वो फ़ेल होने का डर है. फेलियर को हम हर तरह से अवॉइड करना चाहते हैं. आप कोई भी हों, कहीं भी हों, फ़ेल होने का डर सबको लगता है.   

फेलियर से डर लगना लाज़मी हैं. मगर ये डर क्यों लगता है? 

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हमें बचपन से ही ये बताया गया या सिखाया गया है कि एक बार में ही चीज़ हासिल हो गई तो ठीक वरना आप लूज़र हो. क्या होता है, बचपन में आपने क्लास में पहली बार में ही सही जवाब दिया तो अच्छे मार्क्स वरना ज़ीरो. ये ज़ीरो आपके दिमाग में घर कर जाता है. आपको उस ही पल से यक़ीन हो जाता है कि पहली बार नहीं तो कभी नहीं.   

तो अगली बार आप क्लास में हाथ उठाने से डरने लगते हैं. ज़वाब देने में डर लगता है. क्योंकि ग़लत ज़वाब साथ में बहुत सारा मज़ाक भी लाता है. तो इस डर कि कड़ी में दूसरा साथी जुड़ता है ‘शर्म’. शर्म कि अगर मैं असफ़ल हो गया तो लोग मुझे किस नज़र से देखेंगें. लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगें? उनको लगेगा मुझसे कुछ नहीं होता है.

अच्छा ये तो वो सारी बातें हैं, जो हम अमूमन लोगों के मुंह से सुनते हैं. मगर आप साइंटिफ़िक तौर पर सोचेंगें तो वास्तव में ये डर कहां से आता है?   

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जब भी हमारा दिमाग़ अपने आस-पास कोई भी असहजता, बदलाव या रूटीन से हट कर चीज़ें महसूस करता हैं तो दिमाग़ का एमीग्लाडा हिस्सा तुरंत एक्टिवेट हो जाता है. दिमाग़ का ये हिस्सा डर पैदा करने के लिए होता है. यदि आप एक ऊंची मीनार पर खड़े होंगें और कोने में जाएंगें तो आपके दिमाग़ का ये हिस्सा तुरंत आपको वहां से हटने के सिग्नल भेजेगा. उसको तुरंत ख़तरे का आभास होने लगेगा ऐसे में आपके शरीर में एक Adrenocorticotropic (ACTH) hormone नामक रसायन रक्त द्वारा भेजा जाएगा जो आपके मन में इस डर के भाव को बढ़ा देगा और आप अपने आप पीछे हो जाएंगे. 

अब जैसे कि आप किसी इंटरव्यू में बैठे हैं, ऐसे में डर लग्न लाज़मी है पर Amyglada ये नहीं पता लगा सकता कि ये डर पॉजिटिव है या नेगेटिव. ऐसे में यहां आपको आगे आकर अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलना होगा और इस डर को भगाना होगा.   

तो ये जो डर हम महसूस करते हैं इसका मतलब ये नहीं है कि हम कुछ कर नहीं सकते. ये नैचुरल है. सब महसूस करते हैं. तो जब हम ये जान जाते हैं कि ये डर नॉर्मल है. ये सभी चैलेंजेज़, असहजता जिनसे हमें फ़ेल होने का डर लगता है वो हमारे लिए एक अवसर होते हैं बेहतर इंसान बनने का और जीत नहीं भी मिली तो क्या हर चीज़ सीख़ ज़रूर देकर जाती है.