इंसान अगर किसी काम को करने की ठान ले, तो वो क्या नहीं कर सकता. विश्व भर में आपको कई ऐसे महान व्यक्तियों के नाम मिल जाएंगे, जिन्होंने भीषण तूफ़ानों जैसी मुसीबतों का सामना कर हैरान कर देने वाला काम करके दिखाए. इसी क्रम में हम आपको उत्तराखंड के एक ऐसे रिटायर्ड BSF जवान के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने पहाड़ी बंज़र ज़मीन पर घना जंगल उगाने का काम किया है. इस जंगल में वो लगभग 1 लाख मिश्रित पेड़ लगा चुके हैं और आज भी उनका ये काम जारी है. आइये, स्कूपव्हूप से हुई ख़ास बातचीत के आधार पर जानते हैं वो सभी बातें, जो उन्हें एक महान पर्यावरणविद् (Environmentalist) बनाने का काम करती हैं. साथ में हम ये भी जानेंगे कि उनका नाम ‘जंगली’ कैसे पड़ा. 

जगत सिंह चौधरी  

जगत सिंह चौधरी

हम जिन पर्यावरणविद् की बात कर रहे हैं उनका नाम है जगत सिंह चौधरी, जो उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के रहने वाले हैं. उनका जन्म 10 दिसंबर 1950 को रुद्रप्रयाग के कोट मल्ला गांव में हुआ था. वहीं, उन्होंने अपनी बी. ए की पढ़ाई गढ़वाल विश्वविद्यालय से की थी. इसके बाद उन्होंने 1980 तक बीएसएफ़ में अपनी सेवा दी और 1971 की लड़ाई में भी हिस्सा लिया था. इनकी पत्नी का नाम श्रीमती शांति देवी है और इनकी चार बेटियां हैं और एक पुत्र. 

ये तो था जगत सिंह चौधरी जी का एक संक्षिप्त परिचय. अब नीचे जानते हैं उनका अब तक का सफ़र. 

कैसे पड़ा ‘जंगली’ नाम?  

जगत सिंह चौधरी

ये नाम जानकर बहुत लोग सोच में पड़ सकते हैं कि आख़िर एक पर्यावरणविद् को जंगली क्यों कहा गया? दरअसल, इसके पीछे एक दिलचस्प घटना जुड़ी है. जगत सिंह चौधरी से हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि जब उन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में काम शुरू कर दिया था, तो ज़िले के ही एक राजकीय स्कूल में उन्हें एक कार्यक्रम में लेक्चर के लिए बुलाया गया, जहां उन्होंने पेड़ बचाओ, मृदा बताओ व अपनी संस्कृति बचाओ जैसे विषयों पर अपनी बात रखी. साथ ही पर्यावरण से जुड़े कई मुद्दों को सामने रखा. 

इस कार्यक्रम के दौरान उन्हें सम्मानित किया गया और ‘जंगली’ नाम की उपाधि दी गई और साथ ही हस्तलिखित सर्टिफ़िकेट भी दिया गया था. हालांकि, इस नाम को लेकर उनकी पत्नी काफी समय तक गुस्से में रहीं, लेकिन बाद में उन्हें अपने पति पर गर्व होने लगा. कुछ इस तरह जगत सिंह चौधरी का नाम पड़ गया ‘जंगली’.   

पहाड़ी बंज़र ज़मीन पर उगा डाला जंगल  

जगत सिंह चौधरी

जगत सिंह जी ने बताया कि उनकी ये कहानी शुरू होती है 1973-74 में. उन्होंने बताया कि वो बीएसएफ़ में थे और उस दौरान कश्मीर में पोस्टेड थे. वहीं, साल में दो बार उनका घर आना होता था. एक बार वो छुट्टी पर अपने गांव आए, उन्होंने देखा कि गांव की महिलाओं को पशुओं के चारे और लकड़ी के लिए दूर जंगल तक जाना पड़ता था. वहीं, पहाड़ी व चट्टानी रास्तों पर चलने के दौरान कई बार दुर्घटनाएं भी घट जाती थीं. जैसे किसी महिला का चट्टान से गिर जाना या पैर-हाथ टूट जाना. 

जब जगत सिंह जी ने ये सब अपनी आंखों से देखा, तो वो काफी चितिंत हुए और उन्होंने ठान लिया कि स्थानीय लोगों की इस परेशानी को दूर करके ही रहेंगे. जगत सिंह आगे बताते हैं कि उनके पुरखों की लगभग 1.5 हेक्टेयर बंज़र ज़मीन पड़ी थी, जिसे उन्होंने जंगल में तब्दील करने का सोच लिया. 

जगत सिंह चौधरी
जगत सिंह चौधरी

उन्होंने सोचा कि अगर इस बंज़र ज़मीन पर जंगल उगा दिया जाए, तो गांव वालों को दूर जाना नहीं पडे़गा. उनकी लकड़ी, पानी और चारे की समस्या दूर हो जाएगी. फिर क्या था, वो दिन रात उस बंज़र ज़मीन पर पेड़ उगाने के काम पर लग गए. जगत सिंह जी ने बताया कि लगभग 30-40 वर्ष के कठीन परिश्रम के बाद बंज़र ज़मीन घने जंगल में तब्दील हो पाई थी. वो कहते हैं कि “1980 के बाद से मैं पूरी तरह से इस काम में लग गया था”.

लगे हैं विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे

जगत सिंह चौधरी
जगत सिंह चौधरी

जगत सिंह जी आगे बताते हैं कि उनके जंगल में 60 प्रजातियों के पेड़, 25 प्रजातियों की जड़ी-बूटियां, लगभग 10 प्रकार के फूलों की प्रजातियां व साथ ही 10 प्रकार की हरी पौष्टिक घासें भी लगी हुई हैं. 

इतने बड़े जंगल का रखरखाव कैसे करते हैं? 

जगत सिंह चौधरी

उन्होंने बताया कि लगभग 15 सालों से गांव का एक व्यक्ति उनके साथ जंगल के रखरखाव में मदद कर रहा है. जगत जी उसे वेतन भी देते हैं. वहीं, समय-समय पर ज़रूरत के अनुसार, वो स्थानीय लोगों की मदद भी लेते रहते हैं. लेकिन, ज़्यादा काम वो ख़ुद ही देखते हैं.  

किए आय के स्रोत भी विकसित 

जगत सिंह चौधरी
जगत सिंह जंगली

बातचीत के दौरान जगत सिंह जी चिंता जताते हुए कहते हैं कि “सरकार हमारे कामों का सम्मान तो करती है, पर ऐसी योजनाओं को इकोनॉमी से जोड़ने में विफल रह जाती है”. वो कहते हैं कि हमने ख़ुद ही इसका समाधान निकाला और जंगल में नकदी फसलों को उगाने का फ़ैसला लिया, जिनमें हल्दी, अदरक, इलायची व अन्य मसालों के साथ दालें भी शामिल हैं. साथ ही उन्होंने ये भी कहां कि हमने स्थानीय लोगों को जागरूक किया और ट्रेनिंग दी ताकि वो भी नकदी फसलें उगाकर आय सृजन कर सकें. इसके लिए कई प्रोजक्ट पर काम भी चल रहा है. 

 बिना सरकारी मदद खड़ा किया जंगल  

जगत सिंह चौधरी

जगत सिंह जी बताते हैं कि इस काम में उन्हें सरकार की तरफ़ से कोई आर्थिक मदद नहीं मिली. उन्होंने अकेले ही इस पूरे जंगल को खड़ा किया है. वहीं, जब इस बात की जानकारी तत्कालीन राज्यपाल स्वर्गीय सुरजीत सिंह बरनाला को मिली, तो वो जगत जी के जंगल को देखने के लिए आए और काफी खुश हुए. वहीं, उन्होंने वहां की कच्ची सड़क के डामरीकरण में मदद भी की थी. 

इसके अलावा, जंगल क्षेत्र में लगे दो 40 हज़ार लिटर के वॉटर टैंक को स्थापित करने के लिए कृषि विभाग द्वारा मदद की गई थी. बता दें इस टैंक में हिमालय से आती धारा का पानी जमा होता है. इस पानी का इस्तेमाल सिंचाई और अन्य कामों के लिए किया जाता है. 

मिल चुके हैं कई राज्य और राष्ट्रीय पुरष्कार  

जगत सिंह चौधरी

इस बड़े काम के लिए जगत सिंह जी को अब तक 36 पुरष्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. इसमें राज्य और राष्ट्रीय पुरष्कार दोनों शामिल हैं. जगत सिंह चौधरी जी को 2001 में ‘इंदिर गांधी वृक्ष मित्र पुरष्कार’ मिल चुका है. साथ ही उन्हे ‘आर्यभट्ट अवॉर्ड’ से भी सम्मानित किया जा चुका है. वहीं, उन्हें वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की फ़ॉरस्टेशन एंड इको डेवलपमेंट बोर्ड में विशेष सलाहकार भी बनाया गया है. साथ ही उन्हें उत्तराखंड के वन विभाग का ब्रांड एमेसडर भी बनाया गया है.  

पारंपरिक चीज़ों को फिर से पहचान दिलाई 

जगत सिंह चौधरी
जगत सिंह चौधरी

जगत सिंह चौधरी ने न सिर्फ़ जंगल विकसित किया बल्कि पारंपरिक व लुप्त हो चुकीं तकनीकों को फिर से पहचान दिलाने का काम किया. उन्होने बातचीत में बताया कि ‘रिंगाल’ को उन्होंने अपने जंगल में उगाने का काम किया. ‘रिंगाल’ एक जंगली बांस है जो पहाड़ों में 7 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर उगता है, लेकिन जगत सिंह जी ने इसे 4500 फ़ीट की ऊंचाई पर उगाने का काम किया. 

इस ख़ास जंगली बांस से स्थानीय रुड़िया जनजाति विभिन्न प्रकार के हैंडीक्राफ़्ट बनाती है. इस जनजाति के लोग जगत जी से निशुल्क ‘रिंगाल’ ले जाते हैं और विभिन्न प्रकार के हैंडीक्राफ़्ट बनाते हैं. इसके अलावा, ‘घराट आटा चक्की’ को रिइंट्रोड्यूस करने का काम उन्होंने किया. ये खास प्रकार की चक्की होती है, जो पानी की मदद से चलती है. इसे बने आटे को ठंडा आटा भी कहा जाता है, जिसमें सभी पोषक तत्व बरक़रार रहते हैं. 

जब तक किसी इंजीनियर को नौकरी नहीं मिलती वो अपने गांव या क्षेत्र में तकनीक विकसित कर सकते हैं. 

-जगत सिंह चौधरी

प्रचार-प्रसार ही है आगे का प्लान 

जगत सिंह चौधरी
जगत सिंह चौधरी

जंगल को लेकर आगे की योजना के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि पर्यावरण को संरक्षित करने से जुड़ा प्रचार-प्रसार ही उनका आगे का प्लान है. वैसे बता दें कि जगत सिंह के जंगल और संबधित चीज़ों को देखने के लिए न सिर्फ़ देश बल्कि विश्व भर से छात्र, शोधकर्ता व पर्यावरण पर काम कर रहे लोग आते हैं. वो अब तक 6 लाख से ज़्यादा लोगों को पर्यावरण से जुड़े विषयों पर ज्ञान दे चुके हैं. 

साथ ही विश्वविद्यालयों, स्कूलों, राष्ट्रीय व निजी संस्थानों द्वारा आयोजीत होने वाले सेमिनार में लेक्चर के लिए जाते रहते हैं. वहीं, कोविड की वजह से वो आजकल ऑनलाइन ही सेमिनार अटेंड करते हैं और लेक्चर देते हैं. 

गांव को अनुशासन की आवश्यकता है और आर्मी के रिटायर्ड जवान इस काम को अपने गांव या अपने स्थान में कर सकते हैं. 

-जगत सिंह चौधरी

पिता की राह में ही हैं बेटे  

जगत सिंह चौधरी

30 वर्षीय राघवेंद्र भी पिता की राह पर हैं. वो पांच साल की उम्र से ही पर्यावरण से जुड़ी कहानी सुनकर बड़े हुए हैं और जंगलों को देखते आ रहे हैं. उन्होंने श्रीनगर (उत्तराखंड) से बीएससी बायोलॉजी व पर्यावरण विषय में एमएससी की है. वो हिमालय से लेकर भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हैं और स्कूल-कॉलेजों व अन्य संस्थानों में जाकर पर्यावरण संबंधी लेक्चर देते हैं. इसके अलावा, वो पर्यावरण से जुड़े कई प्रोजेक्ट पर काम भी कर रहे हैं.