मैं एक पब्लिक लाइब्रेरी में काम करती हूं. मैं बता नहीं सकती कि कितने घंटों मैंने लोगों को उनके बैग या पर्स से लाइब्रेरी कार्ड निकालने की जद्दोजहद करते देखा है. 

मैं वहां पर बड़े ही धीरज के साथ बैठ कर लोगों को उनके पर्स की बहुत सारी पॉकेटस से एक-एक सामान निकालते देखती हूं. क्रेडिट कार्ड, हेल्थ कार्ड, इंश्योरेंस कार्ड, शॉपिंग के कार्ड और न जाने कौन-कौन से अलग तरह के कार्ड. 

लोग बोलते हैं, ‘मेरा लाइब्रेरी कार्ड यहीं-कहीं है’, ‘बस, मिल गया’, ‘मुझे और तरीक़े से रहने की ज़रूरत है.’ मैं भी मुंह चिढ़ा कर बोलती हूं, ‘वाक़ई, आपको ज़रूरत है.’ और जो मैं नहीं बोलती हूं वो ये कि, ‘आप को वास्तव में बहुत सारी चीज़ों को फेंकने की ज़रूरत है’. मगर मैं कुछ नहीं बोलती और लोगों के ज़बरदस्ती इकठ्ठा किए हुए सामान को देखती हूं बस. 

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आख़िरकार, लोग अपने बैग में से या तो लाइब्रेरी कार्ड निकाल कर मुझे दे देते हैं या अगर नहीं ढूंढ पाते तो सोचते रहते हैं कि उनके बैग से गया कहां? क्या पता? वो वहीं हो. इतनी सारी बेफ़ालतू की चीज़ों के बीच खो गया हो. 

लेकिन मुझे तो अपने पास कम चीज़ें रखना पसंद हैं. या ये कह ले कि सादगी में काम चीज़ों के साथ रहना पसंद है. मेरे पास एक क्रेडिट कार्ड है और गिन कर चार अन्य कार्ड और.   

मुझे सामान से घिरा रहना पसंद नहीं है. मैं एक छोटे से घर में रहती हूं. मैं कपड़े भी ज़्यादा नहीं ख़रीदती और उन्हें तब तक पहनती हूं, जब तक उनकी हालत बुरी न हो जाए. मेरे पास 2002 की एक टोयोटा है जिसको भी मैं ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करती क्योंकि मैं चलना पसंद करती हूं बजाय ड्राइविंग के.   

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21 साल पहले मैंने एक स्थानीय पब्लिक लाइब्रेरी में काम करने के लिए लॉ की प्रैक्टिस छोड़ दी थी. मुझे इस बात का एहसास हो गया था कि रुपये से ज़्यादा ज़रूरी है, जीवन में मज़े करना.   

भले ही मैं अब कम कमाती हूं, लेकिन मैं बेहद ख़ुश हूं. 

मैं दुनियाभर में नहीं घूम सकती, किसी महंगी कॉफ़ी शॉप में नहीं जा सकती, न ही महंगें से रेस्टोरेंट जा सकती हूं, जो मैं पहले कर पाती थी. क्या मैं उन सब चीज़ों को मिस करती हूं? नहीं बिलकुल नहीं. मुझे उस रैट रेस का हिस्सा नहीं बनना.   

यहां मैं ग़रीब होने की बात नहीं कर रही हूं. मैं बस पर्याप्त मात्रा में चीज़ों के होने की बात कर रही हूं. ज़्यादा नहीं. मेरे पास टीवी नहीं है. मैं मॉल भी ज़्यादा नहीं जाती. तो फ़िर मैं मस्ती के लिए क्या करती हूं? मैं पढ़ती हूं. मैं अपने दोस्तों के साथ समय बिताती हूं. मैं तैरती हूं. मैं अपने कुत्ते को टहलाने ले जाती हूं. अपने सबसे क़रीबी दोस्त के साथ वॉक पर जाना और उससे बहुत सारी बातें करना. 

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आख़िरकार, जीवन की सारी अच्छी चीज़ें फ़्री ही तो होती हैं.   

जिस कल्चर में हम आज जी रहे हैं, वह हमें हर वक़्त सामान ख़रीदने के लिए मज़बूर करता है. नई गाड़ी ख़रीदो, लेटेस्ट फैशन के कपड़े पहनो, बड़े घर में रहो, इसकी नकल करो उसकी नकल करो.   

फ़िर सवाल ये उठता है कि क्या मैं एक बेहतर ज़िंदगी जी रही हूं? मुझे बस इतना पता है कि कम चीज़ों के साथ रहने पर मुझे ख़ुशी होती है. और मैं लोगों से कम समय लगाती हूं.. अपने बैग में सामान ख़ोजने में.