दुनियाभर के देश अब धीरे-धीरे लॉकडाउन हटाने की ओर आगे बढ़ रहे हैं. जन-जीवन और अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने के लिए लोगों का अब लम्बे वक़्त के बाद घरों से निकलना चालू हो गया है.  

मगर एक स्टडी के अनुसार, कोरोना वायरस के चलते बनाई गई समाजिक दूरी ने हमारी आदतें बदल दी हैं. जीवन को सामान्य करने की इस कोशिश में कई लोगों में अब सामाजिक संपर्क बनाने की चाह कम रहेगी. इसके साथ ही लॉकडाउन से बाहर निकलने पर लोग अधिक अकेलेपन और एंज़ाइटी का शिकार होंगे.     

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वोल्सफ़न इंस्टीट्यूट और सेन्सबरी वेलकम सेंटर स्थित यूसीएल शोधकर्ताओं ने ज़ेब्राफ़िश में सामाजिक व्यवहार की जांच की. अध्ययन के परिणाम Elife में प्रकाशित किए गए हैं. 

ज़ेब्राफ़िश इंसानों की ही तरह समाजिक व्यवहार दिखाते हैं. स्टडी के अनुसार, मात्र 10% फ़िश (Loner Fish) ऐसी होती हैं जिन्हें अकेला रहना पसंद हैं. और उनकी दिमाग़ी गतिविधियां अपने बाक़ी ज़्यादा सामाजिक ज़ेब्राफ़िश से भी अलग होती है. हालांकि, अगर समाजिक ज़ेब्राफ़िश को भी लम्बे समय तक उसके झुंड से अलग कर दिया जाए तो वो भी समाजिक सम्पर्क करने से बचती है. जिसकी लॉकडाउन में मनुष्यों के साथ तुलना की जा सकती है. 

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अलगाव के असर की जांच करने के लिए शोधकर्ताओं ने, समाजिक ज़ेब्राफ़िश को अपने अन्य साथियों से दो दिन के लिए अलग कर दिया.  

दिमाग़ी गतिविधी से पता चला कि जिन ज़ेब्राफ़िश को अलग नहीं किया गया था उनमें भी समाजिक सम्पर्क को लेकर एक तरह का विरोध आ गया था. वहीं दूसरी तरफ़ जिन ज़ेब्राफ़िश को आईसोलेट या अलग किया गया था उनके दिमाग़ के वो हिस्से जो तनाव और चिंता का केंद्र हैं उनमें गतिविधि बढ़ गई थी. अलगाव के इन प्रभावों को जल्दी से दूर किया गया, जब मछलियों को चिंता काम करने वाली दवाई दी गई.  

मछलियों में ये बदलाव दिमाग़ के हाइपोथैलमस (Hypothalamus) हिस्से में देखा गया था. हाइपोथैलेमस हिस्सा, हमारे समाजिक सम्पर्क से होने वाले प्रभाव के लिए ज़िम्मेदार है.  

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स्टडी में पाया गया कि ‘Loner Fish’ के मस्तिष्क की गतिविधि में समाजिक सम्पर्क से कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है. लेकिन यदि एक समाजिक ज़ेब्राफ़िश को उसके साथियों से कुछ दिनों के लिए अलग कर दिया जाए तो उसके दिमाग़ में तनाव और चिंता पैदा करने वाले रसायनों का प्रभाव बढ़ जाता है.  

“ज़ेब्राफ़िश के मस्तिष्क का एक विस्तृत दृष्टिकोण हम सभी के लिए महत्वपूर्ण सुराग प्रदान कर सकता है जो वर्तमान में सामाजिक अलगाव के प्रभावों का सामना कर रहे हैं.”, Dr Elena Dreosti. 

Dr. Dreosti का ये भी कहना है कि सामाजिक व्यवहार के neural mechanisms के बारे में अभी हमारी समझ काफ़ी सीमित है मगर ज़ेब्राफ़िश और मनुष्य दोनों ही समाजिक बातचीत के लिए एक ही जैसा तरीक़ा अपनाते हैं जो की समान मस्तिष्क संरचनाओं द्वारा नियंत्रित होती है. 

इस स्टडी से पता चलता है कि कैसे इन मछलियों की ही तरह मनुष्य भी ज़्यादा समय तक लोगों से दूरी बनाने के बाद स्ट्रेस महसूस करने लगता है. साथ ही वो सामाजिक सम्पर्क से भागता रहता है. इसके साथ ही स्टडी का ये भी कहना है कि लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद मनुष्य लम्बे समय तक के लिए अकेला महसूस नहीं करेगा मगर सामन्य जीवन में लौटने के बाद थोड़ा ज़्यादा चिंतित रहेगा.  

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कई वैज्ञानिकों का कहना है कि ये समाजिक दूरी न केवल बड़ों लेकिन बच्चों के बढ़ते दिमाग़ पर भी इसका असर हो रहा है.  

पूर्व अमेरिकी सर्जन जनरल विवेक मूर्ति का कहना है की कोरोना वायरस के चलते अकेलापन एक व्यापक स्वास्थ्य चिंता के रूप में समाज के सामने खड़ा है. उनका कहना है कि ये दोनों मानसिक और शारीरिक तौर पर जानलेवा है.  

मार्च में Early April KFF Tracking Poll द्वारा किये गए एक सर्वे में पाया गया था कि अमेरिका में 47% लोग लॉकडाउन होने के बाद मेन्टल हेल्थ का शिकार हो चुके हैं.  

मनोवैज्ञानिक डॉ. एडी मर्फी का कहना है कि लॉकडाउन हमारे अंदर कई तरह के बदलाव लेकर आएगा. मानसिक से लेकर इसका असर आपके रिश्तों पर भी पड़ेगा.   

लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे सब अपने नए ‘सामान्य’ जीवन में ढलने लगेंगे उम्मीद है कि सब ठीक हो जाएगा.