तमाम रिश्ते-नाते होते हुए भी कई बार मन को अकेलापन महसूस होने लगता है. अकेलापन एक ऐसा भाव है, जो इंसान को अंदर ही अंदर खा जाता है. 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यानी सोशल एनिमल है. चाहें किसी को कुछ भी लगे मगर हम इंसान कभी भी अकेले ज़िंदगी बसर नहीं कर सकते हैं. लोगों से घुलना-मिलना, उनके साथ वक़्त बिताना, पार्टी करना और मिल-जुलकर जश्न मनाना हमारी फ़ितरत भी है और एक तरह से ज़रूरत भी. 

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मगर क्या वाकई आजकल की भीड़-भाड़ भरी ज़िंदगी में ऐसा कनेक्शन मिलना आसान है. क्या हमारे पास समय हैं? महानगरों की चका-चौंध में फंसे हम जैसे लोगों के लिए ख़ुद वक़्त निकालना बेहद मुश्किल सा हो जाता है. कई बार ये भी होता है कि जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारे विचारों में भी फ़र्क़ आने लगता है ऐसे में भी हम लोगों से दूरियां बनाने लगते हैं. 

अकेलेपन का अंदाज़ा सिर्फ़ वही व्यक्ति लगा सकते हैं, जिन्होंने इसे महसूस किया हो. हांलाकि, अकेलापन ज़िंदगी का वो हिस्सा है, जो कभी न कभी हर इंसान की ज़िंदगी में आता ही है. 

मगर वास्तव में अकेलापन इंसान को निज़ी तौर पर ही नहीं मानसिक तौर पर भी बेहद नुक़सान पहुंचाता है. अकेलापन हमारे दिमाग का पूरा सर्किट गड़बड़ कर देता है.   

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हमारे दिमाग़ का एमिग्लाडा हिस्सा जो कि डर को कंट्रोल करता है और हिप्पोकैम्पस जो की हमें लोगों से सम्पर्क बनाने में मदद करता है ऐसे में बेहद ही नकारात्मक तरीक़े से हरक़त में आ जाते हैं.   

कॉर्टिसोल नाम के रसायन का रिसाव सबसे ज़्यादा होता है. ये रसायन स्ट्रेस को और बढ़ा देता है. इसके साथ ही डोपामाइन और सेरोटोनिन नाम के रसायन हमारे दुःख को और हवा देते हैं. 

कई साइंटिस्ट ये भी कहते हैं कि क्योंकि अकेलापन इंसान को मानसिक और शारीरिक दोनों तरह नुकसान पहुंचाता है तो ऐसे में इंसान जल्दी मर भी जाता है. 

इसलिए ध्यान दे ख़ुद पर भी और अपने आस-पास के लोगों पर भी. यदि आप या कोई कई दिनों से शांत और कटा-कटा सा रहता है तो उससे बात करें और ज़रूरत पड़े तो किसी डॉक्टर के पास भी ले जाएं.