लखनऊ में दाखिल होना अतीत से गुज़रने जैसा है. हर तरफ़ मौजूद नवाबी दौर की इमारतें शहर का शाही इतिहास समेटे हैं. कुछ शहर के प्रमुख लैंडमार्क बन चुके हैं तो कुछ बढ़ते लखनऊ के भीतर गुम हो गए. आज बड़ा इमामबाड़ा और छोटे इमामबाड़े से तो हर कोई वाकिफ़ है, लेकिन शहर में मौजूद दूसरे इमामबाड़ों से अनजान हैं. ‘शाहनजफ़ इमामबाड़ा’ भी इनमें से ही एक है.

इस सफ़ेद गुम्बददार ख़ूबसूरत इमारत को अब लखनऊ वाले भी क़रीब-क़रीब भुला चुके हैं. मगर आज भी ये इमारत अपने भीतर शहर का इतिहास संजोय खड़ी है.
क्या होता है इमामबाड़ा?

इमामबाड़े का मतलब एक ऐसे धार्मिक स्थल से है, जहां शिया संप्रदाय के मुसलमान इमाम हुसैन और कर्बला के शहीदों की ‘मजलिस’ (शोक सभाएं) के लिए इकट्ठा होते हैं. इस नज़रिये से शाहनजफ़ इमामबाड़े का महत्व ऐतिहासिक के साथ-साथ धार्मिक भी है.
19वीं सदी में हुआ था निर्माण

सिकंदरबाग के पास गोमती नदी के तट पर स्थित इस सफ़ेद गुंबद वाले मकबरे का निर्माण अवध के नवाब और पहले राजा ‘गाज़ी-उद-दीन हैदर’ ने इस्लाम के पैगंबर हजरत मोहम्मद के दामाद हज़रत अली की याद में 1816-1817 में कराया था.
वास्तव में, शहर के बीचों-बीच स्थित शाहनजफ़ इमामबाड़े के बग़ल से गुज़रने पर शायद किसी का ध्यान इस पर जाए. इसके पीछे वजह इसका प्रवेश द्वार है, जो बाहर से देखने पर प्रभावी नज़र नहीं आता, लेकिन जब आप अंदर दाखिल होते हैं, तो नज़ारा बिल्कुल ही अलग होता है.

मुख्य दरवाज़े से इमामबाड़े के दरवाज़े तक का रास्ता सफ़ेद संगमरमर से बना है. प्रमुख रूप से इसकी बनावट में लाखौरी ईंटों और बादामी चूने का प्रयोग किया गया है.
इस इमामबाड़ा की खास विशेषता ये है कि इसकी इमारत, इराक के नज्जाफ़ शहर में स्थित इमाम हज़रत अली की कब्र से काफ़ी मिलती-जुलती है. यहां गाज़ी-उद-दीन हैदर के अलावा उनकी तीन पत्नियों सरफ़राज महल, मुबारक महल और मुमताज़ महल की भी कब्रें हैं.