मां बनना आसान होता है या मुश्किल ये तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन बच्चे को जन्म देने से पहले और जन्म देने के बाद ‘मां’ बन जाना बहुत ज़रूरी होता है. मां की ये परीक्षा तबसे शुरू हो जाती है जब बच्चा कोख में आता है. उसी वक़्त से खाना-पीना, उठना-बैठना सब कुछ बच्चे के मुताबिक होने लगता है. उसी दिन से अपने लिए काफ़ी चीज़ें ख़त्म होने लगती हैं क्योंकि बच्चा जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे मां में कई बदलाव आते हैं. और उन बदलाव के विपरीत कुछ भी करने से मां और बच्चे दोनों को दिक्कत होती है. इसलिए बच्चा कोख में हो या बाहर उसकी देखभाल तो करनी पड़ती है.
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बच्चे की देखभाल कई तरीक़ों से करनी पड़ती है, घर के बुज़र्गों की बातें मानकर, आस-पड़ोस में किसी ने कुछ बताया उसे समझकर इसके बाद आख़िरी रास्ता होता है इंटरनेट. आजकल इंटरनेट पर कई तरह की Baby Care Tips के बारे में पढ़ने को मिल जाता है, उन्हीं में से एक है कंगारू केयर (Kangaroo Care), जो नवजात शिशुओं के देखभाल की एक प्रक्रिया है. इसका इस्तेमाल ख़ासकर उन बच्चों के लिए किया जाता है, जिनका जन्म के समय वज़न कम होता है. ख़ासकर जिन शिशुओं का जन्म के समय वज़न कम होता है. इसके बारे में इंडियन एकेडमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के नियोनेटोलॉजिस्ट डॉ. नवीन बजाज ने महत्वपूर्ण जानकारियां देते हुए बताया है:
क्या है कंगारू केयर?
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इस प्रक्रिया को त्वचा से त्वचा का संपर्क माना जाता है. इस दौरान बच्चे के पेरेंट्स उसे अपने सीने से इस तरह से चिपकाकर लिटाते हैं, जिससे बच्चे के शरीर और पेरेंट्स के शरीर का संपर्क सही से हो. नवजात शिशुओं के लिए ये तकनीक बहुत ही फ़ायदेमंद और कारगर है. इससे बच्चे का स्वास्थ्य सही रहता है और बच्चा हेल्दी रहता है. इस तकनीक का प्रयोग समय से पहले या समय पर हुए बच्चों के लिए भी किया जा सकता है.
कंगारू केयर कौन-कौन दे सकता है?
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कंगारू केयर तकनीक के ज़रिए बच्चे की देखभाल करने के लिए सबसे बेहतर मां होती है. अगर मां अपना पूरा समय नहीं दे पा रही है तो उसकी जगह पर बच्चे के पिता दे सकते हैं. इसके अलावा परिवार के अन्य सदस्य जो बच्चे के क़रीबी हैं, जैसे, भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी, चाची, मौसी, बुआ, चाचा आदि कोई भी बच्चे को कंगारू केयर देकर मां की ज़िम्मेदारी कम कर सकते हैं, लेकिन बच्चा उसी का हाथ में दीजिए जो उसे सही संभाल पाए. कंगारू केयर देने वाले व्यक्ति को स्वच्छता का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी होता है. इसलिए उसे रोज़ नहाना, साफ़ कपड़े पहनना, हाथों को हमेशा साफ़ रखना और नाख़ून कटे हुए रखना ज़रूरी है.
कंगारू केयर को कबसे और तब तक बच्चे को देना चाहिए?
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कंगारू केयर की शुरुआत बच्चे के जन्म से ही कर देनी चाहिए. शुरुआत में इसकी अविध क़रीब 30 से 60 मिनट तक ही रखें. इसके बाद जब बच्चे को मां की या बाकी सदस्यों की आदत पड़ जाए तो इसे बढ़ा भी सकते हैं. फिर जितना हो सके बच्चे को कंगारू केयर दें. ख़ासकर जिन बच्चों का वज़न कम हो उन्हें तो कंगारू केयर जितना हो सके देनी चाहिए. बच्चे को कंगारू केयर देते समय मां और बच्चे दोनों सो सकते हैं.
कंगारू केयर की प्रक्रिया
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कंगारू केयर देते समय बच्चे को मां के ब्रेस्ट यानी स्तनों के बीच इस तरह से रखा जाता है कि उसका सिर एक तरफ़ झुका हो, ताकि वो सांस भी ले पाए और मां की आंखों के सामने रहे. इसके अलावा, बच्चे का पेट मां के पेट के ऊपरी हिस्से पर होना चाहिए और उसके हाथ-पैर मुड़े हुए होने चाहिए. शिशु को सही लेने के लिए साफ़ सूती कपड़े का इस्तेमाल कर सकती हैं.
कंगारू केयर देने के फ़ायदे
1. जिन बच्चों को कंगारू केयर के ज़रिए देखभाल की जाती है, उन बच्चों का अपने माता-पिता से काफ़ी लगाव होता है.
2. इस प्रक्रिया को करने से बच्चे के मस्तिष्क का विकास होता है और मां की आंखों से बच्चे की आंखों का कॉन्टेक्ट होने से दोनों में प्यार, अपनापन और विश्वास बढ़ता है.
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3. बच्चे को मां जितनी ज़्यादा ब्रेस्ट फ़ीडिंग कराती है बच्चे का स्वास्थ उतना ही बेहतर होता है. बच्चे के पोषण और विकास में स्तनपान का महत्वपूर्ण योगदान है.
4. इसे देकर सर्दियों में बच्चे के शरीर का तापमान स्थिर रखा जा सकता है.
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5. इस तकनीक से बच्चों का वज़न तो बढ़ता ही है वो देर तक शांति से सोते भी हैं और रोते भी कम हैं.
6. कंगारू केयर तकनीक से देखभाल किए जाने वाले बच्चे स्वस्थ और बुद्धिमान होते हैं.
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पिता को भी शिशु को देनी चाहिए कंगारू केयर
माताओं की तरह, पिता को भी अपने बच्चे को कंगारू केयर देनी चाहिए. इससे शिशु और पिता के बीच अपनेपन की भावना बढ़ेगी. इसके ज़रिए मां के साथ-साथ पिता को भी बच्चे की भूख और तनाव को समझने की मदद मिलेगी. पिता भी अगर कंगारू केयर देने में मां के साथ देते हैं तो मां को भी कुछ समय अपने लिए मिल जाएगा, जिसमें वो अपने शरीर को शांति से थोड़ी देर के लिए आराम दे पाएगी.
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आपको बता दें, नवजात शिशु के लिए ये तकनीक बहुत ही उपयोगी है. इससे बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में मदद मिलती है और बच्चे ख़ुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.