अगर आप अपने जीवन में पीछे मुड़ कर देखते हैं, तो क्या आपको उससे कोई पछतावा होता है? शायद नहीं! 

हालांकि, बहुत से लोग अपने पछतावे को पीछे छोड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता है. कभी न कभी वो आपको परेशान करता ही है. 

हो सकता है कि आपने कभी कोई ऐसा फ़ैसला लिया हो, जिसने आपके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला हो. जिससे आपको तकलीफ़ पहुंची हो या फिर आपके उस फ़ैसले से किसी दूसरे को चोट पहुंची हो. ऐसे में हम बस यही सोचते हैं कि ‘काश, मैंने ये नहीं किया होता…” 

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पछतावा अक्सर एक बुरे फ़ैसले का भावनात्मक रिएक्शन होता है. पछतावा तब होता है जब अतीत में लिए गए हमारे किसी फ़ैसले का बुरा परिणाम निकलता है और हम बस यही सोचते हैं कि अगर ये न करके ये किया होता तो आज जीवन कुछ और होता. 

पछतावा इतना शक्तिशाली भाव इसलिए भी है क्योंकि हमारे लिए फ़ैसलों का परिणाम होता है. ये निजी होता है क्योंकि हमने ख़ुद को ये दुःख पहुंचाया होता है.   

जब हमें पछतावा होता है तो दिमाग़ के कई हिस्से जैसे ऑर्बिटोफ्रॉन्टल और एमिग्लाडा जो हमारे इमोशन्स को कंट्रोल करते हैं वो एक्टिव हो जाते हैं. 

इसलिए साइंटिस्ट का मानना है कि पछतावा हमारी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण भाव है. ये हमें अच्छे के लिए बदलने की तरफ़ मोटीवेट करता है. ये हमें बदलने का मौका देता है. जीवन में नई सोच और नए क़दम लेने की तरफ़ प्रोत्साहित करता है. हमें दूसरी बार ग़लत फ़ैसला लेने से बचाता है. 

मगर ये इतना भी आसान नहीं होता है. कई बार यही पछतावा हमारे अंदर डर भी पैदा करता है. हमें डर लगने लगता है कि हमारे जीवन का हर फ़ैसला ग़लत ही होगा. 

क्या है कि बाक़ी सभी भावनाओं की तरह पछतावा या अफ़सोस हमें सुरक्षित महसूस करवाने के लिए होता है. अफ़सोस हमें हमेशा हमारे फ़ैसले पर दोबारा सोचने को मबूर करता है. 

साइंटिस्ट कहते हैं कि पछतावा एक बहुत बड़ा कारण है जिसकी वजह से एडिक्ट अपने में सुधार करना चाहते हैं.