हिंदुस्तान में बहुत ऐसी अपराधिक घटनाएं हुई हैं, जिनके लिये कोर्ट ने फांसी की सज़ा का फ़रमान सुनाया. किसी भी जज के लिये फांसी की सज़ा सुनाना आसान नहीं होता, लेकिन कुछ अपराधों के लिये इसके सिवा कोई उपाय भी नहीं होता. इसलिये काफ़ी सोच-विचार के बाद जज साहब को ये निर्णय लेना ही पड़ता है. हम में से बहुत से कम लोग ये बात जानते होंगे कि फांसी की सज़ा सुनाने के बाद जज उस पेन की निप तोड़ देते हैं. अगर आपके के लिये जानकारी नई है, तो इसको थोड़ा विस्तार से जान लेते हैं.

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फांसी की सज़ा सुनाने के बाद जज पेन की निब क्यों तोड़ देते हैं?

फांसी की सज़ा सुनाने के बाद जज साहब उस पेन की निब को तोड़ देते हैं और ये एक्ट सिम्बोलिक एक्ट कहलाता है. आज़ादी के बाद पहली बार भारत में पेन की निब 1949 में तोड़ गई थी. जब महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे फांसी की सज़ा सुनाई गई. पंजाब उच्च न्यायालय के जज द्वारा गोडसे को फांसी की सज़ा सुनाई गई और इसके बाद जज ने पेन की निब तोड़ दी.  

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ऐसा करने की एक वजह नहीं है, बल्कि कई वजहे हैं. ऐसा कहा जाता है कि जज के लिये किसी भी व्यक्ति को मौत की सज़ा सुनाना काफ़ी कठिन होता है. वो पेन की निब तोड़ कर सज़ा सुनाने के लिये अंदर से होने वाली पीड़ा को ज़ाहिर करते हैं. इसके साथ ही वो ये भी उम्मीद करते हैं कि अब उन्हें ऐसी मनहूस सज़ा दोबारा न सुनानी पड़े.  

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इसके अलावा ये भी कहा जाता है कि जज पेन की निब इसलिये भी तोड़ते हैं कि उनके इस फ़ैसले को बदला न जा सके. उच्च न्यायालय और राष्ट्रपति के अलावा जज के फ़ैसले को कोई नहीं बदल सकता है. यहां तक कि जज स्वंय भी नहीं. इसलिये जज पेन की निब तोड़ कर ये साफ़ कर देते हैं कि फांसी की सज़ा सुनाने के बाद उसे बदला नहीं जा सकता है.  

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जज द्वारा कलम की निब तोड़े जाने की एक वजह और है. कहा जाता है कि जज उस पेन की निब इसलिये तोड़ते हैं, ताकि उस पेन को दोबारा यूज़ न किया जा सके. क्योंकि उससे किसी इंसान की मौत लिखी जाती है.

तो समझ गये न किसी भी जज के लिये फांसी का फ़रमान लिखना कितना दुखदाई होता है