कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ना ज़्यादा ख़तरनाक है या नाकामी के वायरस से संक्रमित हमारे देश की व्यवस्था में जीना ज़्यादा भयावह है. ये सवाल उठना लाज़मी है. भारत में 21 दिन के लॉकडाउन का ऐलान हो गया. जो जहां था वहीं, फंस गया. लाखों प्रवासी मजदूर बिना सहारे दूसरे शहरों में अकेले पड़ गए. न रोजगार, न खाना और न ही छत. ऊपर से घर लौटने के लिए कोई साधन भी मुहैया नहीं. ऐसे में हज़ारों की संख्या में ये प्रवासी पैदल ही अपने घर को लौट चले. सौकड़ों मील का सफ़र तय किया लेकिन बावजूद इसके राहत नसीब नहीं हुई. 

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ताज़ा मामला पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले का भेंगडी गांव का है. चेन्नई से अपने गांव लौटे 7 दिहाड़ी मजदूर पेड़ों पर मचान बनाकर रहने को मजबूर हैं. पिछले पांच दिन से ये लोग पेड़ पर ही रह रहे हैं. क्योंकि डॉक्टर ने उन्हें क्वारंटाइन में रहने के लिए कहा है लेकिन गांव में कोई कमरा नहीं है. 

Indianexpress की रिपोर्ट के मुताबिक़, 24 वर्षीय Bijoy Singh Laya ने बताया कि, ‘हम अपना ज्यादातर समय पेड़ पर बिताते हैं. हम शौचालय का उपयोग करने के लिए, कपड़े धोने और जब भोजन परोसा जाता है, तब नीचे उतरते हैं. ऐसा इसलिए किया गया है ताकि हम पूरी तरह से अलग-थलग हो जाएं और गांव में किसी के लिए जोखिम न बनें. गांव के लोगों ने हमसे जो करने के लिए कहा है हम उसका पालन कर रहे हैं.’ 

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उसने बताया कि वे सभी चेन्नई के एक ऑटो पार्ट्स की दुकान पर काम करते थे. वे एक ट्रेन में सवार होकर पिछले रविवार को खड़गपुर पहुंचे. वहां से वे बस लेकर पुरुलिया और फिर एक वाहन से बलरामपुर आ गए. 

बता दें, इन सभी युवकों की उम्र 22 से 24 साल के बीच है. उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात का पता था कि COVID-19 तेज़ी से फैल रहा है. इसीलिए वो गांव जाने से पहले पुलिस स्टेशन गए. 

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वैसे पुरुलिया के इस गांव में ऐसे मचान बनाना एक आम बात है. सामान्य दिनों में ये मचान हाथियों पर नज़र रखने के काम आते हैं. लेकिन क्वारंटाइन के लिए अब इनका इस्तेमाल हो रहा है. इसे देखकर यही लगता है कि मचान पर इन युवाओं को नहीं बल्कि हमारे हुक्मरानों को बैठने की जरूरत है. ताकि वहां से कम से कम उन्हें खुद की नाकामियों का नज़ारा तो मिल सके.