ज़रा सोचिए अगर आपके घर के बीच से एक सड़क निकाल दी जाए तो कैसा लगेगा? अज़ीब बात है न! अगर ग़लती से भी ऐसा हो जाए तो आप आसमान सिर पर उठा लेंगे. हर जगह अपना विरोध दर्ज कराएंगे क्योंकि आप बोल सकते हैं, आपको लोग सुन और समझ सकते हैं. लेकिन जो बेज़ुबान हैं वो ख़ुद का घर बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं.   

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वो बोल नहीं सकते हैं ये बात समझ आती है लेकिन हम उनका दर्द महसूस नहीं करते पाते हैं ये बात गले से नीचे नहीं उतरती. घर तो घर ही होता है न, वो चाहें हमारा हो या फिर उन जानवरों का, जिनके घर यानि जंगल से हमारे विनाशकारी विकास की सड़कें गुज़र रही हैं.  

हम अपने घरों, रेलों, सड़कों और अन्य इंफ़्रास्ट्रक्चर की ज़रूरतों की ख़ातिर इन बेज़ुबान जानवरों के आवास को नष्ट करते जा रहे हैं. नतीज़ा ये जानवर कभी ट्रेन तो कभी सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं.   

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ऐसा भी नहीं है कि हमें बेघर होने का दर्द नहीं पता है. इस महामारी के दौर में हज़ारों प्रवासी मज़दूरों को हमने अपनी आंखों के सामने भटकते देखा है. ट्रेन की पटरी पर ख़ून से सनी रोटियों का वो भयानक नज़ारा अभी भी ज़हन में ताज़ा है. बहुत दर्द हुआ था, पूरा देश ग़ुस्से में था, लेकिन सवाल ये है कि हम अपना ये दर्द सिर्फ़ इंसानों तक ही क्यों महदूद रखते हैं. हर जीव के लिए हमारे मन में वो दयाभाव क्यों नहीं है?  

अब इन हाथियों को ही ले लीजिए. चारों ओर जंगल से घिरी सड़क को ये हाथियों का समूह पार करने की कोशिश कर रहा है. एक छोटा सा हाथी का बच्चा सड़क पार कर दूसरी ओर जाना चाहता है, लेकिन वो क्रॉस नहीं कर पा रहा. उसकी मां उसे सड़क पार करने के लिए मदद कर रही है. मां उसे किसी तरह सपोर्ट देकर ऊपर खींचना चाह रही है.  

इसका वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है, जिसे एक लॉरी ड्राइवर ने शूट किया है. इन हाथियों के स्ट्रगल को देखकर सोशल मीडिया पर तमाम लोग इस इंसानी अंधविकास की दौड़ पर अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर कर रहे हैं.  

MoEFCC के मुताबिक़, साल 2016 से 2018 के बीच क़रीब 49 हाथियों की मौत रेल दुर्घटना में हुई है. और इस तरह के मामले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं. विकास ज़रूरी है लेकिन हमारी ज़रूरतों की क़ीमत ये बेज़ुबान चुकाएं, ये तो ठीक नहीं है. कुछ नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उनकी आवश्यकताओं को लेकर थोड़ा संवेदनशील तो हो ही सकते हैं.