पता नहीं क्यों…. क्यों मैंने अभी तक ये फ़िल्म नहीं देखी थी? ख़ैर ये तो मैं हर फ़िल्म के बारे में बोलती हूं अभी मैं Wake Up Sid फ़िल्म की बात कर रही हूं. 

कुछ समय पहले मेरी बॉस ने मुझे ये मूवी देखने को कहा था. सच बोलूं तो उस समय लगा था कि कोई ऐसी ही घिसी-पिटी सी फ़िल्म होगी, लेकिन नहीं ये बिलकुल वैसी नहीं थी जैसी मैंने सोची थी. और कुछ ही दिनों के अंतर में मैंने इस फ़िल्म को दो बार देखा. 

ख़ैर, मेरे इस फ़िल्म को पसंद करने की कई वज़हे हैं. सिड का हर आम नौजवान की तरह होना, जिसको नहीं पता होता कि उसे आगे क्या करना है, नए शहर की घबराहट, और न जाने ऐसी कितनी अनगिनत चीज़ें. मगर मैं सिर्फ़ एक व्यक्ति की बात करूंगी और वो है आइशा. आइशा से मैं सबसे ज़्यादा जुड़ा हुआ महसूस करती हूं. 

आइशा की तरह ही मैं भी, इस बड़े से महानगर में अपने बैग में अपने सामान के साथ ढेरों सपने भर के लेकर आई थी. अगर आइशा के क़िरदार को ओल्ड-फ़ैशन नाम देना है तो शायद मैं भी वैसी ही हूं. पार्टी-शार्टी करना तो मेरे अंदर था ही नहीं कभी. छोटे शहरों में वैसे भी ये सब कहां ही होता है. मगर हां शुरू-शुरू में मैंने भी इस महानगर में दोस्त बनाने का जरिया पार्टी और नशा ही करने को समझा था. क्योंकि मन में डर होता है कि अगर हम उनके तौर-तरीकों से नहीं चले तो हम कभी भी उनके जीवन या ग्रुप का हिस्सा नहीं बन पाएंगे. 

मगर धीरे-धीरे एहसास हुआ कि वो बनने में कोई मज़ा नहीं है, जो मैं हूं ही नहीं. ठीक है अगर मेरा मन फ्राइडे नाईट को घर पर पिज़्ज़ा खाते हुए नेटफ़्लिक्स या अपनी पसंदीदा फ़िल्म देखने का है. ठीक है अगर शायद मैं सिर्फ़ अपने कमरे में सिर्फ़ सोना चाहती हूं. ठीक है मैं, मैं हूं न की वो लोग. 

छोटे शहर से अचानक एक बड़े से शहर में आना और उसे अपनाना आसान नहीं होता है. क्या आइशा और क्या मैं, हम सब उस दौर से गुज़रे हैं. अंजान चेहरे, नई सड़कें, बड़े शहरों को लेकर बनी राय ये सब मुश्किल बना देते हैं. यक़ीन मानों सड़क पार करने से भी पहले दस बार सोचना पड़ता है. लोगों पर भरोसा करने में भी वक़्त लगता है. आइशा बार-बार सिड को बोलती है कि वो कोई गलत हिंट नहीं देना चाहती है. ये आइशा के अंदर का डर मुझमे भी था. छोटे शहर से आई मैं, शुरुआत में यही समझती थी कि महानगरों के लोग बस हम छोटे शहरों से आए लोगों का फ़ायदा उठाना चाहते हैं. ये डर और ज़्यादा बढ़ जाता है अगर आप लड़की हों तो. बार-बार लोगों को अपनी नियत की सफ़ाई देनी पड़ती है और सतर्क रहना पड़ता है. 

मगर ये ज़िंदगी चुनी है मैंने अपने लिए और वक़्त के साथ ये शहर, ये गलियां और यही लोग सब अपने से लगने लगते हैं. मन नई जगहों पर लगने लगता है और अकेले रहना एक मज़बूरी नहीं धीरे-धीरे कम्फर्ट भी लेकर आता है. 

आइशा का ख़ुद के पैरों पर खड़े होने की ज़िद्द मुझसे बहुत कुछ कहती है. मेरे लिए आज़ादी का मतलब सिर्फ़ कमाना नहीं है. बल्कि हर छोटी से छोटी चीज़ ख़ुद कर पाने से है. खाना बनाने से लेकर मनपसंद जगह घूम पाने तक. एक ऐसी ज़िंदगी बनाना ख़ुद के लिए जो मेरे हिसाब से चले न की दूसरों के. जैसे आइशा कहती है ‘लाइफ़’ को लाइफ़ की तरह जीना.   

इस फ़िल्म में जो सबसे ख़ूबसूरत बात है वो है आइशा का ख़ुद के साथ का स्ट्रगल. शहर नया है तो क्या ज़रूरी नहीं कि हम भी ख़ुद को बदलें. फ़िल्म बड़ी ही सहजता से बिना किसी शोर के आपको बता जाती है कि जहां आपके आस-पास की दुनिया बदल रही हो ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि आप, आप बने रहें. मूवी के एक सीन में वो अपने बॉस के साथ जैज़ सुनने जाती है मगर वो साफ़-साफ़ बोलती है कि उसे जैज़ नहीं पुराने गाने पसंद हैं. और मैं इस बात से बिलकुल इत्तेफ़ाक़ रखती हूं. दूसरों की नज़र में अच्छा बनने के लिए मैं ख़ुद से झूठ नहीं बोल सकती.       

बॉलीवुड की एक पॉपुलर फ़िल्म ने ‘लड़का और लड़की दोस्त नहीं हो सकते’ का ग़लत कॉन्सेप्ट सोसायटी के बीच रखा. वहीं वेक अप सिड में आइशा और सिड के बीच एक ऐसा स्पेस दिखाया है. जिसमें इनोसेंस है. जो सोसायटी के स्टीरियोटाइप कॉन्सेप्ट को तोड़ता भी है. आपके और हमारे भी दोस्त हैं जो हमारे साथ फ़्लैट में रहते हैं और ये बहुत नॉर्मल है. और फ़िल्म में भी इस बात को बड़ी ही सहजता से बताया गया है. 

अपने सपनों, नौकरी और नई आज़ादी से जूझते हुए मुझे भी आइशा की ही तरह इस शहर से और यहां के लोगों से जुड़ाव हो गया और बड़ी ही सहजता और ख़ूबसूरती के साथ ये फ़िल्म हमको जीवन की छोटी-छोटी बातें सिखा और बता जाती है.