हिंदी फ़िल्म जगत के इतिहास में आर.डी. बर्मन उर्फ़ पंचम दा न सिर्फ़ अपने उम्दा संगीत, बल्कि अपने अलग स्टाइल के लिए हमेशा याद किए जाते हैं और आगे भी ऐसा होता रहेगा. संगीत का जादू बचपन से ही उनके सिर चढ़ कर बोलता था. आपको जॉनी वॉकर का गाना, 'सर जो तेरा चकराए' तो याद ही होगा. इस गाने की जो धुन है, उसे आर.डी. बर्मन ने ही कंपोज़ किया था.

पंचम दा ने करीब 331 फ़िल्मों में अपना म्यूज़िक दिया. उनके संगीत से समाज हर तबका ख़ुद को आसानी से कनेक्ट कर लेता था. वजह थी उनका किसी धुन को ईजाद करने का स्टाइल. वो बारिश की बूंदों, बहती नदी का कलरव, चिड़ियों की चहचहाट आदि को रिकॉर्ड कर उनको अपने संगीत में जगह देते थे.
इसका नमूना हमें कई बार उनकी फ़िल्मों में देखने को भी मिला. मसलन 'यादों की बारात' का गाना, 'चुरा लिया है तुमने' की शुरुआत एक ग्लास के ग्लास के टकराने से होती है. इसे बर्मन ने ग्लास पर चम्मच टकराकर रिकॉर्ड किया था और ऐसा सिर्फ़ वो ही कर सकते थे.

इसी तरह फ़िल्म 'अगर तुम न होते' के गाने, 'धीरे-धीरे ज़रा-ज़रा' में रेखा अपनी ज्वेलरी पर जब टैप करती हैं, उससे जो साउंड निकलता है, उसे पंचम दा ने एक चाभी के गुच्छे से बनाया था. एक बार तो उन्होंने अपनी टीम के एक सदस्य की शर्ट उतरवा कर उसके शरीर पर अपने हाथों की थाप से ही धुन बना डाली थी. इसे देव आनंद की फ़िल्म 'डार्लिंग डार्लिंग' के गाने 'रात गई बात गई' में इस्तेमाल किया गया.
उनके द्वारा बनाए गए संगीत और गाए गानों की फे़हरिस्त काफ़ी लंबी है. उनके असीम योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. एक वक़्त पर कहा जाता था किशोर कुमार, राजेश खन्ना और पंचम दा, ये तीनों किसी मूवी में हैं, तो उसका हिट होना तय है.

मगर दुख की बात ये है कि इतना स्टारडम हासिल करने के बाद भी उनके आखिरी दिनों में लगभग हर किसी ने उनका साथ छोड़ दिया था. उनके अंतिम दिनों में उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था, न ही उनके पास कोई फ़िल्म थी.
ये दौर था 1980 का, जब उनकी तीन फ़िल्में, 'ज़माने को दिखाना है', 'मंज़िल-मंज़िल' और 'ज़बरदस्त' फ्ल़ॉप हो गई. ये तीनों फ़िल्में उन्हीं प्रोड्यूसर नासिर हुसैन की थी, जिन्होंने कभी पंचम को अपनी हर फ़िल्म में लेने का वादा किया था, लेकिन उनके बुरे वक़्त में उन्होंने ही उनका साथ छोड़ दिया. इसके बाद फ़िल्म मेकर्स ने बप्पी लाहरी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे म्यूज़िक डायरेक्टर्स का रुख कर लिया. ग़ौर करने वाली बात है कि कभी लक्ष्मीकांत उन्हीं की टीम का हिस्सा हुआ करते थे.

1986 में पंचम ने फ़िल्म 'इज़्ज़्त' में संगीत दिया, इसे कई अवॉर्ड मिलने के बाद भी उनके करियर का ग्राफ़ नीचे गिरता गया. आखरी फ़िल्म '1942 अ लव स्टोरी' का म्यूज़िक देने के बाद उन्हें हार्ट अटैक आया और इसके रिलीज़ होने से पहले ही इस दुनिया को छोड़कर चले गये. इस फ़िल्म के लिए उन्हें मृत्यु के बाद जीवन का तीसरा फ़िल्मफ़ेयर मिला था. फ़िल्म के गाने किस क़दर हिट हुए, ये बताने की ज़रूरत नहीं.
पंचम दा को इस दुनिया से गए करीब 24 साल हो गए हैं, लेकिन आज भी उनके द्वारा बनाया गया म्यूज़िक लोगों को पसंद आ रहा है. प्यार, जुदाई, गुस्सा, फ़न, अकेलापन, लाइफ़ का ऐसा कोई इमोशन नहीं था, जिसे पंचम ने अपने म्यूज़िक में पीरो कर लोगों के सामने पेश न किया हो.

उनके जाने के बाद पंचम के दोस्त और गीतकार, गुलज़ार ने लिखा था:
याद है पंचम
वो प्यास नहीं थी,
जब तुम म्यूज़िक उड़ेल रहे थे ज़िंदगी में
और हम सब ओख बढ़ा कर मांग रहे थे
प्यास अब लगी है,
जब कतरा-कतरा तुम्हारी आवाज़ का जमा कर रहा हूं
क्या तुम्हें पता था पंचम
कि तुम चुप हो जाओगे
और तुम्हारी आवाज़ ढूंढता फिरूंगा
वो अपने गीत, 'मुसाफ़िर हूं यारों' की तर्ज पर एक ऐसे सफ़र पर निकल गए हैं, जहां उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ चलते ही जाना है.