कुछ लोगों को जीते-जी दुनिया का साथ नहीं मिलता तो कुछ मरने के बाद सहारे को मोहताज होते हैं. बस फ़र्क इतना है कि जब तक सांस है, ख़ुद को सहारा देने की आंस भी रहती. ज़िंदगी गुज़रने के बाद तो इसकी उम्मीद भी छूट जाती. ऐसे ही नाउम्मीद शवों का सहारा बने हैं मुकेश मल्लिक, जो अब तक क़रीब 15,000 लावारिस लाशों का दाह संस्कार कर चुके हैं.

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आइए जानते हैं कौन हैं मुकेश मल्लिक और क्या है उनकी कहानी-

लावारिस लाशों के मसीहा मुकेश मल्लिक

रिपोर्ट्स के मुताबिक, मुकेश बिहार के महादलित बस्ती के रहने वाले हैं. साल 1990 से वो लावारिस लाशों का दाह संस्कार कर रहे हैं. इसकी शुरुआत एक अधजली लाश से हुई थी.

दरअसल, किशनगंज के मौजाबाड़ी में मुकेश को एक लाश अधजली मिली. उसे छोड़कर सब चले गए, उस लाश को देखने वाला कोई नहीं था. इसे देखकर मुकेश काफी परेशान हो गए. बस तभी से मुकेश ने ये प्रण लिया है कि हम वैसे हर लाश का दाह संस्कार करेंगे, जिसका कोई नहीं है.

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15,000 शवों का किया दाह संस्कार

मुकेश ने बताया कि लावारिस शवों का दाह संस्कार करते हुए उन्हें 30 साल से ज़्यादा हो गया है. अब तक वो 15,000 से ज़्यादा शवों का अंतिम संस्कर कर चुके हैं. कोरोना काल में भी जब लोग शवों के पास जाने से डर रहे थे तो उन्होंने 400 शवों का दाह संस्कार किया.

उन्होंने कहा कि हमें डर बिल्कुल भी नहीं लगता है. हम सिर पर कफ़न बांध कर निकलते हैं. बाकी सब मां शेरावाली पर छोड़ देते हैं. ये पूछे जाने पर कि उन्हें इसके लिए पैसा कहां से मिलता है तो उन्होंने बताया, किशनगंज समाज बहुत बड़ा है. कोई ना कोई कुछ ना कुछ दे देता. कोई कफ़न दे देता है, तो कोई लकड़ी, तो कोई घी. बाकी जलाने का काम हम करते हैं. तब तक जलाते हैं जब तक लाश पूरी तरह से जल ना जाए.

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हालांकि, उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि इस काम के लिए सरकार से ना तो उन्हें कभी मदद मिली और ना ही सम्मान. फिर वो आंखिरी सांस तक ये काम जारी रखेंगे.

इसी वजह से किशनगंज में एक कहावत भी है ‘जिसका कोई नहीं उसका मुकेश मल्लिक है.’

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