झारखण्ड की राजधानी रांची से क़रीब 50 किलोमीटर की दूरी पर बसा छोटा सा गांव हेसल, खूंटी ज़िले के अंतर्गत आता है. नक्सल और माओवाद से प्रभावित इस गांव में 50 घर हैं. हिंसा की लपटों में जकड़े हेसल में रहने वाली हर लड़की हॉकी खेलती है. सबके सपनों में देश के लिए खेलने के अरमान पलते हैं.
मतलब जिन इलाक़ों को पूरा देश, हिंसक और देशद्रोही मानता है वहीं देश के लिए विश्वस्तर पर खेलने के ख़्वाब देखे जाते हैं. ये बात थोड़ी अटपटी ज़रूर है लेकिन सच है.
खिलाड़ी बनना आज भी सबसे मुश्किल काम है. मुफ़्त में न तो कोच मिलते हैं, न ही सरकार से फ़न्डिंग मिलती है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो बिलकुल भी नहीं. जबसे मिडफ़ील्डर निक्की प्रधान ने 2016 के Rio Squad में जगह बनाई है, तब से यहां की लड़कियों का हौसला बढ़ गया है. उनकी क़ामयाबी ने इन लड़कियों के सपनों को नयी उड़ान दी है.
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2017/06/594a50d219867e3743c7aa0f_937c5f9e-9f6a-4b23-8143-76bfcae8a413.jpg)
Medio रेशमा मिन्जू और Defender मुकतु मुंडू झारखण्ड के हॉकी Women Squad की मेंबर हैं. निक्की प्रधान की चचेरी बहन शशि प्रधान हॉकी की जूनियर नेशनल कैम्प के लिए चुनी गई हैं. पिछले साल बिरसी मुंडू, इतवारी मुंडू और राखी डोडरयी भी जूनियर और सब जूनियर कैम्प के लिए चुनी गई थीं. अब 11 से 14 साल की उम्र के बीच की महिला खिलाड़ियों को झारखण्ड के खेल विभाग की ओर से ट्रेनिंग दी जा रही है.
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2017/06/594a50d219867e3743c7aa0f_25f65a0f-e00f-4060-b023-97f41299f6eb.jpg)
इन लड़कियों में देश के लिए खेलने का जज़्बा लड़कों से कहीं ज़्यादा है. जोसेफ़ भेंग्रा और जोएल भेंग्रा भी इस साल जूनियर नेशनल हॉकी कैम्प के लिए चुनी गई थीं.
हॉकी झारखण्ड टीम के अध्यक्ष भोलानाथ सिंह कहते हैं, ‘हेसल, महिला हॉकी खिलाड़ियों का गढ़ है. निक्की के अलावा भी बहुत सी महिला खिलाड़ियां हैं, जिन्हें राज्य और राष्ट्रीय स्तर के कैम्पस के लिए चुना गया है.’
सिमडेगा, गुमला और खूंटी ऐसे इलाक़े हैं जहां से अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी निकले हैं. एक दशक पहले निक्की प्रधान की चचेरी बहन पुष्पा का हॉकी के Indian Squad में चयन हुआ था. जब भारत ने हॉकी का एशिया कप 2004 में जीता था तब पुष्पा भी उस टीम में शामिल थीं. Doha Asian Games 2006 में भी उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. Defender पुष्पा अब रिटायर हो चुकी हैं.
कौन है इन लड़कियों का कोच?
दशरथ महतो हेसल के बगल वाले गांव पेलौल के एक स्कूल में पढ़ाते हैं. महतो ने बिहार राज्य की ओर से हॉकी खेला है और अब अपने इलाक़े में खेल के क्षेत्र में क्रांति ला रहे हैं. खिलाड़ी मिन्जू कहती हैं कि उन्होंने Passing और Dribbling दशरथ गुरू जी से सीखा है. मशहूर खिलाड़ी पुष्पा और निक्की ने भी अपने कैरियर के शुरूआती दिनों में दशरथ महतो से ही हॉकी सीखी है. हॉकी से प्यार की वजह से दशरथ बच्चों को हॉकी सिखाते रहते हैं.
62 वर्षीय दशरथ महतो बताते हैं कि जब मैंने हॉकी खेलना शुरू किया था तब गांव के लोग हॉकी के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे. पर अब उन्हें इसी खेल की वजह से अपने बच्चों पर गर्व है. यहां के खिलाड़ियों के पास संसाधनों का अभाव है. हेसल में कोई खेल का मैदान नहीं है. यहां के अधिकांश खिलाड़ी पेलौल में खेलने जाते हैं. हेसल से 8 किलोमीटर की दूरी पर झारखण्ड सरकार ने खेल के लिए एक स्टेडियम बनवाया है जो केवल दिन में ही खुला रहता है.
इन सब मुश्किलों के बाद भी यहां की बहादुर लड़कियां हॉकी सीखने के लिए जी जान से जुटी रहती हैं. इन लड़कियों के लिए एक NGO ने Mediocre Coaches की व्यवस्था की है. इन लड़कियों को नंगे पांव खेलने में कोई मुश्किल नहीं होती. ये जानती हैं कि एक छोटी सी चोट इनके कैरियर को शुरू होने से पहले ख़त्म कर सकती है फिर भी ये खेलती हैं. इनके पास मंहगे जूते ख़रीदने का पैसा हो या न हो लेकिन इनमें जो जज़्बा है उसकी कोई बरबरी नहीं कर सकता. इनकी आंखों में देश के लिए हॉकी में मेडल लाने के सपने तैरते हैं.
चाहे धूप हो या बारिश ये लड़कियां सीखने के हॉकी स्टिक और कैप पहन खेलने के लिए मैदान में निकल पड़ती हैं. किटनी मांडू, चिंतामणि मांडू, मंगरी सरू, पुण्डी सरू, जैसी ढेरों लड़कियां कहती हैं उन्हें ‘निक्की दीदी’ की तरह बनना है. उन्हें देश के लिए खेलना है. कहने के लिए नक्सलवाद की आग में ये इलाक़े जकड़े हुए हैं. बन्दूक और हथगोलों के साए में देश के लिए खेलने का अरमान रखने वाली इन बच्चियों को नहीं पता है कि ये जहां रहती हैं वहां जाने के लिए देश के बाकी हिस्सों के देशवासी डरते हैं. उन्हें लगता है यहां रहने वाले नक्सली देश के दुश्मन है. यहीं से सारे माओवादी और नक्सली तैयार होते हैं. उन्हें क्यों हिंसक होना पड़ता है इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता.
झारखण्ड के ये इलाक़े भारत के सबसे पिछले इलाक़ों में आते हैं जहां जीने की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. इन सब परेशानियों से जूझती हुई यहां की लड़कियां देश के लिए खेलने का जज़्बा रखती हैं. इन्हें देखकर कर लगता है अब वो दिन दूर नहीं जब समाज की मुख्य धारा से कटे ये इलाक़े भारत का प्रतिनिधित्व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर करेंगे.