स्पोर्ट्स में हमारे देश में ऐसी बहुत ही कम सफ़लता की कहानियां होंगी, जिनमें संघर्ष न रहा हो. ये संघर्ष सिर्फ़ सफ़लता तक पहुंचने, ख़ुद को साबित करने का नहीं था बल्कि आर्थिक हालातों, सिस्टम की नाकामी और देश में स्पोर्ट्स को लेकर ढीले रवैये से लड़ने का भी था.
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जितने भी खिलाड़ियों ने अभी तक दुनिया भर में देश का नाम रौशन किया है, वो हक से ये सवाल हमारे ज़ंक लगे स्पोर्ट्स सिस्टम से पूछ सकते हैं कि उनकी सुध कामयाबी के बाद क्यों ली गई? क्यों उन्हें तमाम तरह के अवॉर्ड्स, धनराशी, घर-नौकरी जैसी चीज़ों से तब नवाज़ा गया जब वो कुछ हासिल कर चुके थे? क्यों ये सिस्टम, फ़ैसले लेने वाले उसके साथ तब नहीं थे, जब वो अपने फटे जूतों में ही बिना कोच के दौड़ लगाते था.
यूं तो ये संघर्ष इस देश में लगभग हर खिलाड़ी ने देखा है, लेकिन उनमें से कुछ नाम आपके सामने ला रहे हैं, जिन्होंने इन सभी कमियों को पीछे छोड़ कर कामयाबी के झंडे गाड़ दिए:
दीपिका कुमारी-तीरंदाज़ी
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दुनिया की नंबर वन तीरंदाज़ का दर्जा हासिल करने वाली दीपिका कुमारी के पिता एक ऑटो ड्राइवर हैं. एक ज़िला स्तरीय प्रतियोगिता के लिए अपने पिता को मनाने और बाद में तीरंदाज़ी में ख़ुद को साबित करने के लिए इन्होंने बहुत संघर्ष किया.आर्थिक रूप से कमज़ोर और कोच के नकार देने के बाद भी उन्होंने न सिर्फ़ तीरंदाज़ी में महारथ हासिल की, बल्कि देश के लिए कई मेडल भी जीते.
अमरजीत सिंह- फ़ुटबॉल
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पिछले साल भारत में हुए अंडर 17 फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप में भारतीय टीम की कप्तानी कर चुके अमरजीत सिंह के पिता एक किसान हैं. अमरजीत की फ़ुटबॉल की ट्रेनिंग के ख़र्च को उठाने के लिए उनकी मां मछली बेचने का काम करती थीं. फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप की ओपनिंग सेरेमनी में आने के लिए भी इनके पास पैसे नहीं थे.
ख़ुशबीर कौर- वॉक रेस
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साल 2014 में Icheon एशियन गेम्स में ख़ुशबीर कौर ने वॉक-रेस प्रतियोगिता में रजत पदक जीता था. इनकी मां एक टोलर हैं. बारिश के मौसम में जब घर की छत टपकने लगती थी, तो पूरा परिवार गौशाला में रात बिताता था. वर्ष 2008 जूनियर राष्ट्रीय रेस प्रतियोगिता में वो बिना जूतों के नंगे पैर ही दौड़ी थीं.
हीमा दास- धावक
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आईएएएफ़ विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स चैंपियनशिप 2018 में ट्रैक स्पर्धा में हीमा दास ने स्वर्ण पदक जीता था. इनके पिता किसान हैं. परिवार की आर्थिक हालात बहुत ही खस्ता थी. इसलिए उनकी पूरी ट्रेनिंग का ख़र्च हीमा के कोच ने ही उठाया था.
तारा ख़ातून- फ़ुटबॉल
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सिवान की उड़नपरी के नाम से मशहूर तारा ख़ातून ने 2013 में फ्रांस में हुई स्कूल फ़ुटबॉल वर्ल्डकप में हिस्सा लिया था. इनके पिता टायर पंचर बनाने का काम करते हैं. अपने कोच की मदद से तारा पहले ज़िला स्तर पर और बाद में राज्य स्तर पर फ़ुटबॉल में अपनी टीम का नेतृत्व करने में सफ़ल हुईं. फ़िलहाल तारा बिहार की अंडर-19 टीम की कप्तान हैं.
दुती चंद- धावक
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दुती चंद के पिता एक बुनकर हैं. इनका सफ़र भी काफ़ी संघर्षपूर्ण रहा. बिना किसी ट्रेनिंग के कच्चे रास्तों पर दौड़ना और बाद में राजनीति का शिकार होना. इसके चलते कई बार राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने से वंचित रह गईं, लेकिन दुती ने हार नहीं मानी. पहले राष्ट्रीय स्तर पर और साल 2013 में पुणे में हुए एशियन गेम्स में कांस्य पदक जीता.
कर्णम मल्लेश्वरी-भारोत्तोलन
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सिडनी ओलंपिक 2000 में भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीतने वाली कर्णम मल्लेश्वरी के पिता आरपीएफ़ में कॉन्स्टेबल हैं. बचपन में इन्हें अपने परिवार को सपोर्ट करने के लिए रेल की पटरियों पर कोयला चुनने जाना पड़ता था. बेंगलुरू में एक प्रतियोगिता के दौरान कोच ने इन्हें भारोत्तोलन में हाथ आज़माने को कहा. इसके बाद मल्लेश्वरी ने काफ़ी मेहनत की और 1992 में हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप में कांस्य पदक पाने में कामयाब हुईं.
मनप्रीत कौर-शॉटपुट
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Asian Grand Prix Athletics 2017 में शॉटपुट में गोल्ड मेडल जीता था. मनप्रीत एक ग़रीब परिवार से ताल्लुक रखती हैं. बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया था. अपने चचेरे भाइयों कि मदद से वो इस खेल में आईं और 18 साल की उम्र में शॉटपुट में नेशनल रिकॉर्ड बना दिया.
विजेंदर सिंह-बॉक्सर
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बिजिंग ओलंपिक में भारत को रजत पदक दिलाने वाले बॉक्सर विजेंदर के पिता एक बस ड्राइवर हैं. विजेंदर को बचपन से ही बॉक्सिंग और कुश्ती करने का शौक था. वो भिवानी मुक्केबाज़ी क्लब में प्रैक्टिस करते थे. 2000 में नेशनल लेवल पर गोल्ड मेडल जीतने के बाद उनका अंतराष्ट्रीय करियर शुरू हो गया. इन दिनों वो प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग में हाथ आज़मा रहे हैं.
पीटी उषा- धावक
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उडनपरी पीटी उषा ने 1986 में हुए एशियन गेम्स में 4 गोल्ड और एक सिलवर मेडल जीता था. इनके पिता की छोटी-सी कपड़ों की दुकान थी. पीटी उषा ने 12 साल की उम्र में ही नेशनल लेवल की चैंपियनशिप जीत ली थी. इसके बाद 1980 में पाकिस्तान ओपन मीट में 4 पदक हासिल कर अपने इरादे जग ज़ाहिर कर दिए थे.
इसलिए सिस्टम और समाज से हमारी यही गुज़ारिश है कि वो अच्छे खिलाड़ियों का रोना बंद करे. आस-पास मौजूद उभरते हुए खिलाड़ियों की पहचान कर उनकी हर संभव मदद करें. अगर हम ऐसा करने में कामयाब रहे, तो हमारा नाम भी पदक तालिका में सबसे ऊपर होगा.