ओलंपिक (Olympic) के इतिहास में पहली बार भारतीय महिला हॉकी टीम सेमीफ़ाइनल तक पहुंची. इसका श्रेय भारत के दूर-दराज के गांव से आई बेटियों को जाता है जिन्होंने जीतने के जज़्बे के साथ हॉकी का हर गेम खेला. भले ही महिला हॉकी टीम इस ओलंपिक में पोडियम तक न पहुंच पाई हो, लेकिन उसने दुनियाभर के करोड़ों हॉकी प्रेमियों का दिल ज़रूर जीता है. 

आने वाली पीढ़ियों को इस महिला हॉकी टीम की मिसाल दी जाएंगी. इन्होंने खेल ख़ासकर हॉकी में महिलाओं के लिए बंद हो चुके दरवाज़े को खोला है. इन्हें देख हर कोई यही कहेगा कि-म्हारी छोरी छोरों से कम है कै.


ख़ैर, आज बात करेंगे भारतीय महिला हॉकी टीम की उन खिलाड़ियों के बारे में जिन्होंने ग़रीबी, लोगों के ताने और न जाने किन-किन मुश्किलों से लड़कर ओलंपिक में खेलने के अपने सपने को साकार किया है.

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1. रानी रामपाल 

रानी रामपाल भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान हैं. वो हरियाणा के शाहबाद मारकंडा की रहने वाली हैं. इनका परिवार बेहद ग़रीब था. मां एक हाउस हेल्प थीं और पिता घोड़ा गाड़ी चलाते थे. वो दिन के मुश्किल से 100 रुपए कमाते थे. उनके घर के पास ही हॉकी एकेडमी थी वहां लड़कों को हॉकी खेलते देख उनमें भी ये खेल खेलने की इच्छा जागी. उन्हें ये खेल इतना पसंद आया कि वो टूटी हॉकी स्टिक से प्रैक्टिस किया करती थीं. कोच और कुछ सीनियर खिलाड़ियों की बदौलत उन्होंने पुरानी हॉकी किट हासिल की और ट्रेनिंग की. बाकी तो आपको पता ही है. 

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2. सुशीला चानू 

मणिपुर से आने वाली सुशीला चानू टीम की सबसे एक्सपीरियंस्ड प्लेयर्स में से एक हैं. इनके पिता एक ड्राइवर हैं और मां हाउस वाइफ़. 11 साल की उम्र में इन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया था. इनके अंकल ने इनका दाखिला Posterior Hockey Academy में करवाया था. सुशीला स्टेट टीम में पहले ट्रायल में सेलेक्ट नहीं हो पाई थीं, लेकिन बाद में मेहनत कर ख़ुद को साबित किया और स्टेट के बाद नेशनल टीम में भी जगह बनाई.

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3. दीप ग्रेस एक्का

ओडिशा के सुंदेरगढ़ की रहने वाली दीप एक हॉकी प्लेयर्स के परिवार से ताल्लुक रखती हैं. उनके पिता और भाई भी लोकल हॉकी प्लेयर्स हैं. मगर जब दीप ने हॉकी खेलना चाहा तो पड़ोसियों ने उनके परिवार को ऐसा करने से रोका. परिवार वालों ने उनकी एक न सुनी और बेटी को हॉकी खेलने दिया. जब वो हॉकी खेलती थीं तब लोग ताने मारते थे कि ये घर का काम नहीं करती और लड़कों वाला खेल भी खेलती है. मगर दीप ने उनकी एक न सुनी और अपने लक्ष्य को हासिल कर उनकी बोलती बंद कर दी.

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4. वंदना कटारिया 

हॉकी खेलने के लिए वंदना कटारिया को भी ख़ूब ताने कसे गए थे. वंदना उत्तराखंड के हरिद्वार के रोशनाबाद गांव की रहने वाली हैं. वो टीम की पूर्व कप्तान भी रह चुकी हैं. बचपन में इनके तीन भाई बहन एक ही किट से प्रैक्टिस किया करते थे. पिता ने क़र्ज़ लेकर इन्हें हॉकी की ट्रेनिंग दिलाई थी. वंदना ने लोगों को मुंह बंद करते हुए टोक्यो ओलंपिक 2020 में हैट्रिक लगाने वाली पहली महिला हॉकी खिलाड़ी बनी हैं.  

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5. सविता पुनिया 

विरोधी टीम के सामने दीवार की तरह खड़ी हो जाने वाली गोलकीपर सविता पुनिया बचपन में रोज़ाना 30 किलोमीटर का सफ़र तय कर हॉकी की ट्रेनिंग लेने जाती थीं. वो हरियाणा के सिरसा ज़िले की रहने वाली हैं. अपने परिवार से खेल की दुनिया में जाने वाली वो पहली सदस्य हैं. सविता के दादा जी ने उन्हें ये खेल खेलने के लिए प्रेरित किया था. 

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6. गुरजीत कौर 

अमृतसर के मियादी कलां गांव की रहने वाली हैं गुरजीत कौर. एक किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाली गुरजीत को बोर्डिंग स्कूल में पहली बार हॉकी के दर्शन हुए थे. वो पहले बैठकर हॉकी के मैच देखती थीं बाद में खेलने लगी और इंडियन टीम में अपनी जगह बनाई. 

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7. सलीमा टेट

नक्सल प्रभावित राज्य झारखंड के बड़कीचापार गांव की रहने वाली सलीमा टेट. एक किसान की बेटी सलीमा बचपन में पेड़ों की टहनियों से हॉकी खेलती थीं, क्योंकि उनके पिता के पास स्टिक ख़रीदने के पैसे नहीं थे. उनके गांव के लोग भी सुविधाओं के अभाव में हॉकी खेलते हैं. वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी खेलने वाली अपने गांव की पहली खिलाड़ी हैं. 

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8. लालरेमसियामी 

FIH Rising Star अवॉर्ड पाने वाली पहली महिला हॉकी खिलाड़ी हैं Lalremsiami. इनके पिता एक किसान थे और इनके परिवार की आर्थिक स्थिति सही नहीं थी. मगर पिता ने कभी बेटी के सपने को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उनके जाने के बाद टीम में सेलेक्ट होकर दिवंगत पिता का सपना भी पूरा किया.  

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तो ये थीं आज की 8 प्रेरणादायक कहानियां.