‘रेडर’, ‘डिफ़ेंडर’, ‘चेन टकल’ ये कुछ टर्म हैं, जो कबड्डी से जुड़े हैं. वैसे तो सांस फुला देने वाला ये गेम कई वर्षों से देश में खेला जा रहा है, लेकिन इसकी लोकप्रियता का श्रेय बीते कुछ वर्षों में शुरू हुई प्राइवेट लीग्स को जाता है. इसकी वजह से ही कबड्डी के तमाम खिलाड़ियों को देश और दुनिया में पहचाना जाने लगा है. उन्हीं में से एक हैं कविता ठाकुर.
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भारत की स्टार कबड्डी खिलाड़ी, कविता ठाकुर को आज हर कोई जानता है. इन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए ज़िंदगी से काफ़ी जद्दोजहद की है. उनका आधे से ज़्यादा जीवन एक छोटे से ढाबे में बीता. हिमाचल प्रदेश के मनाली से ये ढाबा 6 किलोमीटर दूर है, जगतसुख नाम के गांव में है.
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इसे उनके माता-पिता ही चलाते हैं. मगर इससे उन्हें इतनी आमदनी भी नहीं होती कि परिवार का पेट पाल सकें. साल 2014 के एशियन गेम्स में देश को गोल्ड दिलाने वाली कविता ने यहां कई दिन पोछा लगाते और बर्तन धोते हुए गुज़ारे हैं. सर्दियों के दिनों में कई बार फ़र्श पर ही सोना पड़ा है. क्योंकि इनके पास इतने पैसे नहीं होते थे कि ये बिस्तर ख़रीद सकें.
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कई बार कमाई न होने के चलते इन्हें भूखे पेट भी सोना पड़ा. लेकिन किसी ने भी हार नहीं मानी, ज़िंदगी से संघर्ष जारी रहा और पढ़ाई भी. स्कूल के दिनों में ही उन्हें कबड्डी खेलना पसंद था. इसलिए उन्होंने इसी खेल में अपना करियर बनाने की ठान ली. दूसरा कारण इस खेल को चुनने का ये था कि ये बाकी खेलों की तुलना में कम ख़र्चीला है.
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2014 में गोल्ड मेडल जीतने के बाद उनकी क़िस्मत बदल गई. हिमाचल प्रदेश सरकार ने उनकी आर्थिक सहायता की. अब वो अपने परिवार के साथ मनाली में एक किराए के मकान में रहती हैं. कविता को इस बात की ख़ुशी है कि वो अपने परिवार को एक अच्छा घर दिला पाईं. अब उनके छोटे भाई की पढ़ाई अच्छे से हो सकेगी.
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अपनी सफ़लता का श्रेय कविता माता-पिता और अपनी बड़ी बहन को देती हैं. कविता की बहन भी एक कबड्डी प्लेयर हैं, लेकिन माता-पिता की मदद करने के लिए उन्होंने अपने सपने से समझौता कर लिया. 2014 में भारतीय महिला कबड्डी टीम में कविता बतौर ‘ऑलराउंडर’ खेली थी. वहीं इस बार के एशियन गेम्स में वो एक स्पेशलिस्ट ‘डिफ़ेंडर’ के तौर पर देश को Represent करेंगी.
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आशा है इस बार भी कविता देश के लिए गोल्ड लेकर आएंगी.