भारत में शायद ही कोई स्पोर्ट्स पर्सन की कहानी संघर्ष के बिना पूरी हुई है. संघर्ष खेल का नहीं, जिंदगी का, व्यवस्था का. ऐसे में खु़शबीर कौर की कहानी कैसे अलग हो सकती थी.

खु़शबीर कौर ने 2008 में जूनियर राष्ट्रीय वॉक-रेस प्रतियोगिता में बिना जूतों के भाग लिया था. वजह? जूते ख़रीदने के पैसे नहीं थे.

IAAF

2014 में Icheon एशियन खेल में इस स्पर्धा में रजत पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला धावक बनीं.

खु़शबीर के सिर से छोटी उम्र में पिता का हाथ उठ गया था. मां को पांच बच्चों के अकेले संभालना था. ससुराल ने रिश्ता तोड़ लिया था. कपड़े सिल कर, दूध बेच कर किसी तरह मां ने बच्चों को पाला.

The Hindu

TOI को दिए एक साक्षात्कार में खु़शबीर की मां कहती हैं:

बारिश के मौसम में जब छत टपकने लगती थी, तब पूरे परिवार को गाय के साथ सोना पड़ता था.
Zee News

वो गर्व से कहती हैं

आज गांव में किसी से पूछ लो, DSP खु़शबीर का घर कहां है, वो आपको बता देंगे किधर जाना है.
Indian Express

2014 एशियन खेलों में पदक जीतने के बाद ही खु़शबीर को पक्का मकान नसीब हो पाया.

खु़शबीर की मां कहती हैं

मेरी बेटियां मेरा गर्व हैं. भ्रूण हत्या करने वालों को मेरा यही संदेश है, ‘याद करो, लड़कियों ने ही आखिरी ओलंपिक में देश की लाज बचाई थी.
NDTV

2016 के रियो ओलंपिक में खु़शबीर अकेली भारतीय महिला खिलाड़ी थी, जो वॉक रेस के लिए क्वालिफ़ाई कर पाई थी.

देश को उम्मीद है कि अर्जुन पुरस्कार विजेता ख़ुशबीर ऐसे ही आने वाले बड़ी प्रतियोगिताओं में देश का नाम रौशन करती रहेंगी, जैसे 2014 के एशियाई खेलों में किया था.