क्रिकेट जगत को ‘डकवर्थ-लुईस’ नियम देने वाले मशहूर गणितज्ञ टोनी लुईस का 78 साल की उम्र में निधन हो गया है. टोनी लुईस ने अपने साथी गणितज्ञ फ़्रैंक डकवर्थ के साथ मिलकर साल 1997 में मौसम के कारण बाधित हुए क्रिकेट मैच के लिए डकवर्थ-लुईस फ़ॉर्मूला बनाया था. 

ICC ने इस नियम को पहली बार साल 1999 में इंग्लैंड में खेले गए ‘वर्ल्ड कप’ से अपनाया था. इस दौरान टोनी और फ़्रैंक के इस फ़ॉर्मूले को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. इसके बाद ऑस्ट्रेलिया के स्टेटिसटिशियन स्टीवन स्टर्न ने मौजूदा स्कोरिंग-रेट के हिसाब से इस फ़ॉर्मूले को रिवाइज़ किया. इसके बाद साल 2014 से इसे ‘डकवर्थ-लुईस-स्टर्न’ नियम कहा जाने लगा. 

25 फ़रवरी 1942 को इंग्लैंड के बोल्टन में जन्मे टोनी लुईस क्रिकेटर नहीं, बल्कि एक मशहूर गणितज्ञ थे. क्रिकेट और गणित में उनके अतुलनीय योगदान के लिए साल 2010 में टोनी को ‘Member of the Order of the British Empire’ नियुक्त किया गया. 

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आख़िर क्यों साल 1992 के ‘वर्ल्ड कप’ के बाद ‘डकवर्थ-लुईस’ नियम की ज़रूरत पड़ी?

साल 1992 के ‘वर्ल्ड कप’ में इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका के बीच खेले गए सेमीफ़ाइनल मुक़ाबले के बाद इस फ़ॉर्मूले को बनाने पर विचार किया था. इस मैच में लक्ष्य का पीछा कर रही दक्षिण अफ़्रीकी टीम को जीत के लिए 13 गेंद पर 22 रन की दरकार थी. लेकिन बारिश के चलते मैच कुछ देर के लिए रोक दिया गया था.

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बारिश रुकने के बाद दक्षिण अफ़्रीकी टीम उस वक़्त हैरान रह गई, जब उसने स्कोरकॉर्ड 1 गेंद पर 21 रन का टारगेट देखा. इस तरह से Revised टारगेट के बाद इंग्लैंड ये मैच 19 रनों से जीत गया. इसके बाद ही आईसीसी ने ‘डकवर्थ-लुईस’ नियम तैयार करने पर विचार किया. 

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‘डकवर्थ-लुईस’ नियम से पहले क्या होता था?

‘डकवर्थ-लुईस’ नियम आने से पहले बारिश से बाधित मैच में ICC सिर्फ़ टीम का रन औसत ही देखती थी. मतलब ये कि बारिश के समय तक खेले गए ओवरों में जिस टीम ने अधिक औसत से रन बनाए होते थे, उसे विजेता घोषित कर दिया जाता था. क्रिकेट के इस पुराने नियम में विकेट गिरने, अधिक बाउंड्रीज़ लगाने जैसे नियम नहीं थे.